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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

किया गया है। इस सबके पीछे असलमें चाल यह है कि सत्याग्रहियोंसे ऐसा व्यवहार किया जाये कि वे उसे सह न सकें । अब देखना यह है कि एशियाई मुहकमेके प्रयत्न कहाँतक सफल होते हैं ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २३-४-१९१०

१५९. अखबारवालोंका कर्तव्य

देशसे आये हुए समाचारपत्रोंमें निम्नलिखित समाचार देखनेमें आया है :

खेड़ाके जिला मजिस्ट्रेट श्री चक्रवर्तीने नडियादसे प्रकाशित 'गुजरात' पत्रके व्यवस्थापक और सम्पादकको नोटिस देकर पूछा था कि उनपर भारतीय दण्ड- विधानकी १२४वीं धाराके अनुसार मुकदमा क्यों न चलाया जाये । आनन्दके जिला मजिस्ट्रेटके सामने नोटिसकी अवधिके भीतर प्रतिवादियोंके वकील श्री मगनमाई चतुरभाई पटेल, बी० ए०, एल एल० बी० ने सूचित किया कि जिस लेखके सम्बन्धमें नोटिस जारी किया गया है वह अंग्रेजी अखबारसे लिया गया था और उसको प्रकाशित करनेमें प्रतिवादियोंका उद्देश्य बुरा नहीं था। साथ ही उन्होंने उस लेखको प्रकाशित करनेपर खेद प्रकट किया। इसलिए जो नोटिस दिया गया था वह रद कर दिया गया ।

व्यवस्थापक तथा सम्पादकके लिए हमें दुःख है। जैसी हालत उनकी है, इन दिनों भारतमें किसी भी अखबारकी वैसी हालत हो सकती है। सम्भव है, यहाँ भी कभी ऐसी स्थिति हो जाये। फिर भी यह स्पष्ट है कि यहां इस समय ऐसी स्थिति नहीं है। इसलिए हम जो लिख रहे हैं उसका महत्त्व अभी पूरी तरह समझमें नहीं आ सकता। जो लपटोंसे घिरे हों, उनके बारेमें लपटोंसे बाहरका मनुष्य कुछ भी लिखे, यह एक दृष्टिसे मूर्खतापूर्ण माना जा सकता है। फिर भी इस अवसरपर साधारण रूपमें इसपर विचार करना अनुचित न होगा।

हम यह अनुभव करते हैं कि जो समाचारपत्र धन्धेके रूपमें नहीं बल्कि केवल लोक-सेवाके लिए निकाले जाते हैं, उनके सम्पादकोंको उनके बन्द हो जानेका डर छोड़कर उन्हें चलाना चाहिए। सभी समाचारपत्रोंपर यह नियम लागू नहीं होता, यह स्पष्ट है; परन्तु जिस समाचारपत्रका उद्देश्य राज्यका अथवा प्रजाका या दोनोंका सुधार करके सेवा करना है उसपर लागू होता है।

जो-कुछ छापा गया है वह सरकारको पसन्द न हो और कानूनके खिलाफ हो, तो भी यदि वह सत्य हो तो सम्पादकको क्या करना चाहिए? क्या उसे क्षमा मांगनी चाहिए ? हम तो कहेंगे कि कदापि नहीं। यह ठीक है कि सम्पादक वैसे लेख छापनेके लिए बाध्य नहीं होता, किन्तु एक बार उसे प्रकाशित कर देनेपर सम्पादकको उसकी जिम्मेदारी स्वीकार करनी चाहिए। Gandhi Heritage Portal