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१७३. सर्वोच्च न्यायालयका मामला

ट्रान्सवाल चीनी संघके अध्यक्ष श्री क्विनकी दरख्वास्तपर सर्वोच्च न्यायालयने जो फैसला दिया है उससे हम जहाँके तहाँ ही हैं। लोगोंका निर्वासन अवैधका अवैध ही बना है। न्यायालयसे यह फैसला नहीं माँगा गया था कि गिरफ्तारीकी आज्ञा कानूनी है या नहीं। इस मामलेमें तो न्यायालयको अधिकार ही नहीं था क्योंकि यह आज्ञा शुद्ध रूपसे प्रशासनिक थी। इसलिए जो एशियाई कानूनके अनुसार ट्रान्सवालके वैध रूपसे पंजीकृत अधिवासी हैं, उनके निर्वासनका सवाल जैसाका तैसा बना हुआ है। न्यायालयको तो केवल इस प्रश्नका निर्णय करना था कि निर्वासन होने तक लोगोंका प्रिटोरियामें रोककर रखा जाना उचित है या नहीं। परिस्थितियोंको ध्यान में रखते हुए न्यायालयको इस तरहके निर्णयपर पहुँचनेमें कोई कठिनाई नहीं हुई कि इस प्रकार रोक रखना अनुचित नहीं है।

लेकिन इस कार्रवाईसे एक विचित्र स्थिति प्रकाशमें आती है। अधिकारी अपनी इस गैर-कानूनी निर्वासन-नीतिको ब्रिटिश बन्दरगाहोंके जरिये कार्यान्वित नहीं कर सकते । अगर निर्वासित व्यक्ति ब्रिटिश प्रदेशसे ले जाये जाते तो वे कानूनी शरण ले सकते थे। इसलिए उन्हें विदेशी बन्दरगाहसे बाहर भेज दिया जाता है। परन्तु सत्याग्रहीके नाते शिकायत करना उनका धर्म नहीं है। उनका तो कर्तव्य केवल इतना है कि जहाँ उन्हें जबर्दस्ती ले जाया जाये, वहाँ चुपचाप चले जायें और ज्यों ही वे स्वतन्त्र हों, वापस आकर ट्रान्सवाल सरकारकी शक्तिको फिर चुनौती दें।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ७-५-१९१०

१७४. श्री रायप्पन और उनके मित्र

श्री जोजेफ रायप्पन और उनके मित्र ऐतिहासिक काम कर रहे हैं। डीपक्लूफ जेलसे जो भी सत्याग्रही बाहर आया है, उसीने श्री रायप्पन और उनके साथी श्री ऐंड्र और जोजेफकी मुक्त कण्ठसे प्रशंसा की है। उन्होंने कैदको बहुत अच्छे रूपमें ग्रहण किया है। सरकारने भी अपनी आदतके अनुसार उनकी शक्तिकी परीक्षा लेनेके लिए उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया है और निर्वासित कर दिया है। जैसा कि श्री रायप्पनने समाचारपत्रोंको भेजे गये अपने पत्र में लिखा है, उन्होंने और उनके मित्रोंने सरकारकी

१ देखिए“ जोहानिसबर्गकी चिट्ठी ", पृष्ठ २५८ ।

२. देखिए " जोहानिसबर्गकी चिट्ठी ", पृष्ठ १५७ ।

३. " भारतीय बैरिस्टरके जेलके अनुभव", इंडियन ओपिनियन, ७-५-१९१० । Gandhi Heritage Portal