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पत्र : डब्ल्यू० जे० वायवर्गको

कि वे निराश होकर वापस नेटाल चले जायेंगे। उसकी यह आशा व्यर्थ सिद्ध होगी, यह सन्तोषकी बात है ।

श्री रायप्पनने अखबारोंको पत्र लिखा है उसका अनुवाद हम दूसरी जगह दे रहे हैं हैं। वह पठनीय है ।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ७-५-१९१०

१७७. पत्र : डब्ल्यू० जे० वायबर्गको

मई १०, १९१०

प्रिय श्री वायबर्ग,

'हिन्द स्वराज्य' सम्बन्धी छोटी-सी पुस्तिकाकी आपने जो बहुत विस्तृत और मूल्यवान समालोचना की है उसके लिए मैं आपका अत्यन्त कृतज्ञ हूँ। मैं बड़ी खुशीसे आपका पत्र' 'इंडियन ओपिनियन' में प्रकाशनार्थ भेज दूंगा और उसका यह उत्तर भी ।

अपने पत्रके अन्तिम अनुच्छेदमें आपने जो भाव व्यक्त किये हैं मैं उनसे पू सहमत हूँ। मुझे यह बात पूरी तरह मालूम है कि मेरे विचारोंके कारण मेरे कट्टर मित्रों और जिन्हें मैं आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ उनके तथा मेरे बीच बहुत-से मतभेद पैदा होंगे, परन्तु जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, इन मतभेदोंके कारण न तो उनके प्रति मेरे आदरमें कमी आ सकती है और न मैत्रीपूर्ण सम्बन्धोंमें अन्तर पड़ सकता है।

आपने अपने पत्रमें जिन अपूर्णताओं और त्रुटियोंकी ओर संकेत किया है मुझे उनका अहसास है और साथ दुःख भी है। मैं जानता हूँ कि जिन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समस्याओंकी चर्चा इस पुस्तिकामें की गई है उनपर विचार करनेके लिए मैं कितना अयोग्य हूँ। परन्तु परिस्थितिवश मुझे पत्रकार होना पड़ा है और इसलिए मैं अपने उन पाठकोंके लिए लिखनेको विवश था, जिनके लिए 'इंडियन ओपिनियन' निकाला जाता है। प्रश्न यह तय करनेका था कि इस समय भारतवर्षमें जो उन्मादभरी हिंसा चल रही है उसके विषयमें 'इंडियन ओपिनियन' के पाठकोंको मार्गदर्शनके लिए इच्छुक होनेपर भी भटकने दिया जाये या उन्हें उनका इष्ट नेतृत्व दिया जाये; भले ही वह नेतृत्व अत्यन्त साधारण क्यों न हो । हिंसाको कम करनेका एकमात्र रास्ता मुझे तो वही दिखाई पड़ा जो पुस्तिकामें अंकित है।

आपके इस विचारसे मैं सहमत हूँ कि सतही तौरपर पढ़नेवाला व्यक्ति इस पुस्तिकाको राजद्रोहात्मक रचना समझेगा और मैं यह भी मानता हूँ कि जो लोग मनुष्यों

१. यहाँ नहीं दिया जा रहा है । २. ट्रान्सवाल विधानसभाके सदस्य । ३. देखिए परिशिष्ट ५ ।