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पत्र: डब्ल्यू० जे० वायवर्गको

इसके पीछे जो सिद्धान्त निहित है वह हिंसाके सिद्धान्तके सर्वथा विपरीत है। इसलिए इसका अर्थ यह नहीं हो सकता कि "लड़ाईका धरातल भौतिकसे हटकर मानसिक हो जाता है"। हिंसाका काम है बाह्य साधनोंसे सुधार करवाना; अनाक्रामक प्रतिरोध अर्थात् आत्मबलका काम है उसे आन्तरिक विकासके जरिये प्राप्त करना । और यह आन्तरिक विकास कष्ट-सहनसे, आत्मशुद्धिसे होता है। हिंसा सदा असफल होती है; अनाक्रामक प्रतिरोध सदा सफल होता है। अनाक्रामक प्रतिरोधीकी लड़ाई फिर भी आध्यात्मिक होती है, क्योंकि वह विजय प्राप्त करनेके लिए लड़ता है। उसके लेखे जयके निमित्त अर्थात् आत्मजयके निमित्त लड़ना अनिवार्य है। अनाक्रामक प्रतिरोध सदा नैतिकतापर आधारित होता है; उसमें कभी निर्दयता नहीं होती। और कोई भी कार्य, चाहे वह मानसिक हो या अन्य प्रकारका, जो इस कसौटीपर खरा नहीं उतरता वह निःसन्देह ही अनाक्रामक प्रतिरोध नहीं है ।

आपने अपने तर्कमें यह दिखानेका प्रयत्न किया है कि राजनीतिको धर्म या आध्या- त्मिकतासे सर्वथा पृथक रहना चाहिए। आधुनिक परिस्थितियों में हम यही बात रोजमर्राके जीवनमें देखते हैं। अनाक्रामक प्रतिरोधका उद्देश्य राजनीति और धर्ममें पुनः ऐक्य स्थापित करना और हमारे प्रत्येक कार्यको नैतिक सिद्धान्तोंके प्रकाशमें जाँचना है। ईसाने पत्थरोंको रोटीमें बदलनेके लिए आत्मबलका प्रयोग करनेसे इनकार कर दिया था; इससे मेरे ही तर्ककी पुष्टि होती है। आधुनिक सभ्यता इस समय उसी असम्भव कृत्यको सम्भव करनेका प्रयत्न करनेमें व्यस्त है। पत्थरोंको रोटीमें बदलनेके लिए आत्मबलका प्रयोग जादूगरी माना जाता, जैसा कि भारतमें आज भी माना जाता है। मैं आपसे इस बातमें भी सहमत नहीं हो सकता कि अमुक काम उचित या अनुचित इसका निर्णय सदैव उस कामके पीछे जो मंशा हो, उससे किया जा सकता है। एक अज्ञानी माँ शुद्धतम इरादेसे अपने बच्चेको थोड़ी-सी अफीम खिला सकती है। उसका यह मंशा उसे न तो उसके अज्ञानसे मुक्त कर सकेगा और न उससे नैतिक दृष्टिसे अपने बच्चेको मारनेका उसका अपराध ही धुल सकेगा। एक अनाक्रामक प्रतिरोधी इस सिद्धान्तको मानकर और यह जानते हुए कि मंशा कितना ही साफ क्यों न हो फिर भी कार्य सर्वथा गलत हो सकता है, फैसला परमात्मापर छोड़ देता है, और जिसे वह अनुचित समझता है उसके प्रतिरोधका प्रयत्न करते हुए स्वयं ही कष्ट-सहन करता है।

सारी भगवद्गीतामें मुझे ऐसा कुछ नहीं मिलता जिसमें कहा गया हो कि जिस मनुष्यका केवल 'कर्मेन्द्रियों पर नियन्त्रण है परन्तु जो "मनको विषयोंके चिन्तनसे अलग नहीं रख सकता", उसके लिए यही बेहतर है कि जबतक वह मनपर भी नियन्त्रण न कर ले, तबतक कर्मेन्द्रियोंसे भोग करे । साधारण व्यवहारमें हम ऐसी प्रवृत्तिको भोग- लिप्सा कहते हैं। हम यह भी जानते हैं कि आत्माके दुर्बल होनेपर भी यदि हम इन्द्रियोंपर काबू रख सकें और सतत कामना करते रहें कि आत्मा भी वैसी ही बलवान हो तो हम आत्मा और इन्द्रियोंमें ऐक्य साध सकेंगे। मेरा खयाल है कि जो वाचन आपने उद्धृत किया है वह एक ऐसे व्यक्तिसे सम्बन्धित है जो दिखानेके लिए तो इन्द्रिय दमन करताप्रतीत होता है परन्तु वास्तवमें जानबूझकर अपने मनमें विषयोंका चिन्तन करता है।