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१८६. लौटे हुए निर्वासित

श्री पोलक और वापस आनेवाले २६ निर्वासित सज्जन दक्षिण आफ्रिकाके भारतीयोंके धन्यवादके पात्र हैं। श्री पोलक इसलिए कि उन्होंने इतनी जल्दी इन लोगोंको यहाँ वापस भेज दिया और निर्वासित सज्जन अपनी बहादुरी और बलिदानकी भावनाके कारण; क्योंकि वे बम्बई पहुँचनेके चार दिनके अन्दर ही पुनः यहाँ लौटने के लिए रवाना हो गये हैं। इसके लिए उन्हें अपने मनसे बड़ा युद्ध करना पड़ा होगा। वे अपनी मातृभूमिको गये थे। इनमें से कुछने तो उसे कभी देखा भी नहीं था। अगर वे वहाँ रह जाते तो अपने देशको कुछ देख पाते और इसमें किसीको आपत्तिकी गुँजाइश भी न होती। परन्तु उन्होंने कर्तव्यको सर्वोपरि समझा। वे जहाजके डेकपर ही जगह पाकर कष्ट सहते हुए वहाँ गये और फिर वैसे ही कष्ट उठाते हुए लौट आये। और यहाँ पहुँचनेपर भी उन्हें कोई चैन थोड़े ही नसीब होनेवाला है? यहाँ भी जेल या पता नहीं क्या उनके भाग्य में है। लोग अपने दिलोंमें इनके विषयमें तरह-तरहकी कल्पनाएँ कर रहे हैं। इन्हें दक्षिण आफ्रिकाके किसी बन्दरगाहपर उतरने दिया जायेगा या नहीं? अगर वे केप अथवा नेटालके बाशिन्दे बन गये हैं तो उनके वहाँ उतरनेमें कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। उनके यहाँ पहुँचने तक संघ-सरकार अपना काम पूरी तरहसे सँभाल लेगी। देखना है नई सरकार इनके साथ क्या सलूक करती है। ट्रान्सवाल आनेपर उनका क्या होगा, इस विषय में कुछ भी अनुमान लगाना बेकार है, क्योंकि उनपर चाहे निषिद्ध प्रवासीके रूपमें मुकदमा चलाया जाये या किसी दूसरे आरोपमें, उन्हें तो जेल जाना ही है। हाँ, अगर सरकार उन्हें उपनिवेशमें लाकर डेलागोआ बेके रास्ते फिर भारत भेज दे तो बात दूसरी है। कुछ भी हो, सत्याग्रही की हैसियतसे उनके सामने केवल एक ही मार्ग है। वह यह कि वे तबतक कानूनके सामने अपना सिर नहीं झुकायेंगे जबतक कि जिन शिकायतोंके खिलाफ वे लड़ रहे हैं वे दूर नहीं कर दी जातीं; फिर इसका परिणाम चाहे जो हो। डर्बनके भारतीयोंका कर्तव्य भी स्पष्ट है; वह यह कि इन भाइयोंके आनेपर वे उनका स्वागत करें और उन्हें जितने आरामसे रखा जा सके, रखें। उनका स्वागत भी वे इतने उत्साहसे करें कि उनपर यह प्रकट हो जाये कि उनके इस आत्मोत्सर्गको समस्त दक्षिण आफ्रिकामें बसे उनके देशभाई आदरकी दृष्टिसे देखते हैं और दक्षिण आफ्रिकाकी सरकार भी जान ले कि दक्षिण आफ्रिकाका समस्त भारतीय समाज उनके साथ है।

[अंग्रेजीसे]
इंडियन ओपिनियन, २१-५-१९१०
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