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१८७. हिन्दू-मुसलमान

उपनिवेशमें जन्मे भारतीय और अन्य भारतीय

उपर्युक्त शीर्षकको लिखते हुए हमें शर्म आती है, किन्तु शर्मके बावजूद सच लिखना हमारा काम है।

मैरित्सबर्ग में कुछ हिन्दुओं और उपनिवेशमें उत्पन्न भारतीयोंने व्यापारिक परवानोंके लिए प्रार्थनापत्र दिया था। उनको परवाने मिल गये, यह तो ठीक है। उनके मिलनेपर इन भारतीयोंको बधाई चाहिए तो हम देनेके लिए तैयार हैं; परन्तु उन परवानोंको लेनेके लिए जो तरीके काममें लाये गये वे अपने हाथों-पाँवोंपर कुल्हाड़ी मारनेके समान है। उस प्रार्थनापत्र के समर्थन में कुछ गोरोंने भी एक अर्जी पेश की थी। उसमें कहा गया है कि हिन्दुओं और मुसलमानोंमें एकता नहीं है। इसलिए हिन्दुओं और उपनिवेशमें उत्पन्न भारतीयोंको मुसलमानोंकी दुकानोंसे सामान खरीदनेके लिए मजबूर करना उचित नहीं है। फलतः इन समझदार गोरोंने सूचित किया कि [प्रार्थियोंको] परवाने दिये जाने चाहिए।

हमें तो ऐसी कार्रवाइयोंके परिणाम बुरे ही नज़र आते हैं। अबतक हमारे प्रार्थनापत्रोंके विरुद्ध केवल गोरे ही दिखाई देते थे। अब हम देखते हैं कि भारतीय भी आपस में एक-दूसरेका विरोध कर रहे हैं। यह [समाजकी] दुर्दशाका सूचक है। हम देखते हैं कि भारतीयोंकी नीयत गोरोंके समर्थन के बलपर एक-दूसरेको नुकसान पहुँचाकर फायदा उठानेकी हो गई है। बुद्धिमान भारतीयोंको तुरन्त समझ लेना चाहिए कि ऐसा करनेसे दोनों ही जातियोंको बड़ी हानि पहुँचेगी। ऐसी प्रवृत्ति अदूरदर्शिताकी बोधक है। इसलिए हम भारतीय नेताओंसे निवेदन करते हैं कि वे इस प्रकारके काम करनेसे पहले विचार करें और चेतें। हिन्दू और मुसलमान इन दोनों जातियोंमें या उपनिवेशमें उत्पन्न भारतीयों और अन्य भारतीयोंमें जो भी भेद डालेगा, फिर वह भारतीय हो या अन्य कोई, हम उसे जातिका शत्रु मानेंगे। उसे शत्रु माना भी जाना चाहिए। हम यह बात खास तौरसे कहना चाहते हैं कि यदि हममें से एक जाति दूसरी जातिकी अपेक्षा अधिक लाभ उठा ले जाती हो तो उसको उठा ले जाने दिया जाये; परन्तु हम अपने आपको तीसरेके हाथमें न जाने दें।

[गुजरातीसे]
इंडियन ओपिनियन, २१-५-१९१०