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१९२. श्री रायप्पन

श्री जोज़ेफ रायप्पन अपनी वृद्धा माता और स्वजनोंसे मिलकर फिर अपने साथियोंसे जेलमें जा मिले हैं। लन्दनसे लौटनेपर वे बहुत कम समय तक घरपर ठहर पाये थे और अब फिर ब्रिटिश उपनिवेशमें प्रवेश करनेके अपराधमें उन्हें दुबारा सजा मिली है। और इस बार कठोर परिश्रमके साथ। उनकी शैक्षणिक योग्यता उनकी रक्षा करनेमें असमर्थ है। भारतीय कुलमें जन्म लेनेके कारण उनकी यह योग्यता तीन कौड़ीकी भी नहीं रही। हाँ, अगर वे यूरोपीय होते तो अवश्य ही उनके गुणोंके कारण उनका सर्वत्र स्वागत होता । श्री पोलकके कथनानुसार यह दुःखद घटना है और इससे जो शिक्षा मिलती है वह स्पष्ट है । ट्रान्सवालमें किसी भारतीयके लिए "ब्रिटिश प्रजा शब्दका कोई अर्थ नहीं होता ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २८-५-१९१०

१९३. और रिहाइयाँ

, डीपक्लूफ जेलसे नामी सत्याग्रहियोंके छूटते जानेका सिलसिला जारी है। कट्टर सत्याग्रही श्री पी० के० नायडू और शान्त स्वयंसेवक श्री राजू नायडू और इनके साथ ही युवक मणिलाल गांधी भी सजाएँ पूरी होनेपर गत सोमवारको छोड़ दिये गये । सत्याग्रहकी लड़ाईके दौरान श्री पी० के० नायडूने चौथी बार जेलकी यह सजा काटी है। उनकी हिम्मत तोड़नेके उद्देश्यसे अधिकारियोंने पिछली बार उन्हें जेलसे छूटते ही पुनः गिरफ्तार कर लिया था । परन्तु श्री नायडू दृढ़ थे । उनको अब जेलसे कोई डर नहीं रह गया था । इसलिए उन्होंने अपने परिवारवालोंसे मिलनेके लिए थोड़े समयकी मोहलत भी नहीं माँगी और कर्तव्यकी पुकारपर सीधे जेल चले गये । पाठकोंको स्मरण होगा कि वे पिछले बोअर-युद्धमें संगठित किये गये भारतीय आहत सहायक स्वयंसेवक दलके सदस्य थे। उन्हें युद्धका एक पदक भी मिला था। परन्तु ट्रान्सवालमें न तो किसी भारतीयको शैक्षणिक योग्यताका कोई मूल्य है और न सैनिक सेवाका ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २८-५-१९१०

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