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सत्याग्रही

भारतसे जो छब्बीस सत्याग्रही वापस आये थे वे यहाँ [ डर्बनमें ] पहुँच गये; किन्तु जहाजसे उनमें से सब नहीं उतर सके। इसमें कुछ दोष हमारा भी है। उनमें से नौ व्यक्ति नेटालमें रहनेके अधिकारी होनेपर भी क्यों नहीं उतर सके ? लेकिन यह समय दोष देखनेका नहीं है। सत्याग्रही लोग समाजके सच्चे सेवक और रत्न हैं, यह मानकर जाति उनकी सार-सँभाल करे और उन्हें प्रोत्साहन दे, ऐसी हमारी इच्छा है। सत्या- ग्रहियोंको मान-सम्मान और खान-पानकी चिन्ता न करनी चाहिए। उनका कर्तव्य तो केवल काम करना और कष्ट सहना है। किन्तु जातिका कर्तव्य उनकी सार-सँभाल करना है। वे हमारी सेना हैं, हमारे 'टामी' हैं। हमने अनुभवसे जाना है कि सभी सत्याग्रही सत्यका पालन ही करते हों, ऐसा नहीं है। हम इसका विचार नहीं कर सकते। फिलहाल तो जो सत्याग्रही होनेका दावा करते हैं उनका दावा मान लेना है। असलमें तो कोई भी व्यक्ति तबतक खरा सत्याग्रही नहीं माना जा सकता जबतक वह अपनी टेकपर कायम रह कर मर नहीं जाता।

जिन लोगोंको वापस लौटना पड़ा है वे भले ही वापस लौटें। वे तो गढ़े जा रहे हैं। यह उनकी एकके बाद एक तीसरी यात्रा है। उनको वापस लाना समाजका काम है। सत्याग्रहियोंका कर्तव्य तो धीरज रखना है। इसके अलावा हम यह कह सकते हैं कि हमें उनके वापस जानेपर दुःख नहीं मानना चाहिए, क्योंकि इस घटनासे संघ-सरकारका अन्याय प्रकट होता है। उसने उन्हें अपना हक साबित करनेका पूरा मौका क्यों नहीं दिया ? उसने उन्हें डर्बनमें क्यों नहीं रहने दिया? हमपर जितने अधिक कष्ट आते हैं, हमारा मामला उतना ही अधिक मजबूत होता है। लोग जितना कष्ट सहेंगे, वे उतने ही ऊँचे उठेंगे और उतनी ही जल्दी मुक्त होंगे। इसलिए यद्यपि भारतीयोंका वापस भेजा जाना बुरा है, फिर भी हम इस [ घटना ] से लाभ उठा सकते हैं।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १८-६-१९१०

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