पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 10.pdf/३७६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३३२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इस तरह रखते हैं ? यह सरासर गुलामी है। जो बच्चे गत वर्ष आये, वे कहींके न रहे। कोई भी हरामखोर उनके प्रति क्रूरता बरत सकता है। माता-पिता तड़के उठकर पशुओं-जैसी कठिन मजदूरी करने चले जाते हैं, और उनके फूल-से बच्चे मारे- मारे फिरते हैं और यदि ये कुछ काम करने लायक दिखें तो उन्हें लगभग ५ शिलिंग देकर मजदूरीपर लगा दिया जाता है। हम लोग भी तो गिरमिटियोंके खूनसे बनी हुई शक्कर इत्यादि खाकर मौज उड़ाते हैं। हममें से बहुतेरे समझते हैं कि गिरमिटियोंको यहाँ आनेसे लाभ होता है और [भारतमें ] भूखों मरनेके बदले वे नेटालमें सुख भोगते हैं। इस प्रकारकी दलील हम अपनेपर लागू करनेकी बात सोच तक नहीं सकते। हम भूखों मर जाना भले स्वीकार कर लें, परन्तु हमें गिरमिट-जैसी दासता स्वीकार नहीं करनी चाहिए और अपने बच्चोंको इस प्रकारकी गुलामीमें न पालना चाहिए । इन बच्चोंका ईश्वरके सिवा कोई सहारा नहीं है। आस्तिक भारतीय तो समझ ही सकते हैं कि ऐसी गुलामीके लिए हम भी जिम्मेदार हैं और इस पापके फलस्वरूप अपनेको स्वतन्त्र माननेवाले भारतीय भी अत्याचारके शिकार बनते हैं। यदि हमारी कलममें बल होता अथवा हमारे समझानेमें शक्ति होती, तो हम सोते हुए भारतीयोंको उनकी घोर निद्रासे जगाते और समाजसे गिरमिट प्रथाको फौरन बन्द करानेके लिए उपयुक्त और कारगर कदम उठानेका अनुरोध करते । क़दम उठानेका यही उत्तम अवसर है। जो लोग संघ-संसद (यूनियन पार्लियामेंट) में जाना चाहते हैं उनके पास हम नेताओंकी सहियोंसे युक्त इस आशयका पत्र भेज सकते हैं कि गिरमिट प्रथा तुरन्त बन्द होनी चाहिए। हम यकीन दिलाते हैं कि गिरमिट-प्रथाके बन्द होते ही भारतीयोंके कष्ट समाप्त होनेमें देर न लगेगी ।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २७-८-१९१०

२५६. तार : द० आ० ब्रि० भा० समितिको

जोहानिसबर्ग
अगस्त २९, १९१०

मजिस्ट्रेटका फैसला कि जो नाबालिग ट्रान्सवालमें नहीं जन्मे और जो १९०८ का अधिनियम लागू होनेके समय वहाँके निवासी नहीं थे उन्हें एशियाई अधिनियम संरक्षण नहीं देता। मामला सर्वोच्च न्यायालयके सामने जा रहा १. यह श्री एल० डब्ल्यू० रिच द्वारा उपनिवेश कार्यालयको ३०-८-१९१० को भेजा गया था । २. छोटाभाइके बेटे मुहम्मदके मामलेमें मजिस्ट्रेट श्री जॉर्डनने फैसला सुनाया था कि पिताके पंजीयन प्रमाणपत्र में बेटेका नाम देनेका कोई अर्थ नहीं है और इससे उसे पंजीयनके लिए प्रार्थनापत्र देनेका कोई अधिकार नहीं मिलता और न पिताका शान्ति सुरक्षा अनुमतिपत्र' ही उसकी रक्षा कर सकता है। इसी आधारपर अपील खारिज कर दी गई और निर्वासनका हुक्म जारी किया गया ।