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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

विरोध केवल श्री अलेक्ज़ेंडरने किया। श्री लिबरमैनने, जो कभी हमारे पक्षमें थे, कहा कि वाणिज्य परिषदके प्रतिवेदनके बाद उनकी आँखें खुल गई हैं। दूसरे सदस्योंने भी ऐसे ही भाषण दिये और अनुमतिपत्र नहीं दिये गये ।

नेटालके कानूनमें परिवर्तन हुआ है, फिर भी लेडीस्मिथमें श्री गोगा-जैसोंको अपने ही मकानके लिए अनुमतिपत्र देनेसे इनकार कर दिया गया है ।' एस्टकोर्ट में भी ऐसी ही ज्यादती देखी जा रही है ।

ट्रान्सवालका तो कहना ही क्या ? वहाँ जिन लोगोंने कानूनको स्वीकार कर लिया है उनको अनुमतिपत्र मिल जाते हैं; परन्तु यह ज्यादा दिनों तक निभनेवाला नहीं है। जो स्वर्ण-क्षेत्र माना जाता है, उस इलाकेमें तो अनुमतिपत्र मिलता ही नहीं । अन्यत्र भी दूसरे उपायोंसे बाधाएँ खड़ी करके यदि अनुमतिपत्रोंके न देनेकी गुंजाइश होती है तो वे नहीं दिये जाते । यह भारतीय व्यापारियोंको ध्यानमें रखना चाहिए कि संघ-संसद बन जानेपर उन्हें व्यापारिक अनुमतिपत्रोंके विषयमें बड़ी कठिनाइयोंका सामना करना पड़ेगा।

इस बीच हम लोग क्या कर रहे हैं ? हमें दुःखके साथ कहना चाहिए कि हम एक तो आलस्य और विलासमें समय खोते हैं; दूसरे, अपना स्वार्थ पूरा हुआ नहीं कि दूसरोंकी परवाह करना छोड़ देते हैं; तीसरे, आपसमें ईर्ष्या करके एक-दूसरेसे लड़ते हैं; और चौथे, कभी-कभी हिन्दुओं और मुसलमानोंमें भी छोटे-मोटे झगड़े देखने में आते हैं। यदि ये झगड़े नहीं होते तो हिन्दू-हिन्दू और मुसलमान मुसलमान आपसमें लड़ते हैं। इस प्रकार किसीको किसीकी परवाह नहीं है।

यदि हमारे चारों ओर ऐसी आग लगी हुई न होती तो ऐसी स्वार्थपूर्ण और अस्त-व्यस्त स्थितिके सम्बन्धमें हमारा अधिक कहना कदाचित् उचित न माना जाता और हम कहते भी तो हमारी बातपर कोई कान न देता । थोड़ा-सा भी विचार करनेपर भारतीय देख सकेंगे कि यदि प्रत्येक व्यक्ति अपना वर्तमान स्वार्थ ही देखता रहे तो कुछ ही समयमें प्रत्येक व्यक्तिपर संकट आ जायेगा । अब यह बात समझानेकी आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि समाजका हित ही प्रत्येक भारतीयका हित है।

हमें लगता है कि पहला वार व्यापारियोंपर होगा । कुछ भारतीय व्यापारी सोचते होंगे कि यदि हम अन्य भारतीयोंसे अलग रहें तो हमें हानि नहीं पहुँचेगी। स्पष्ट ही यह बिल्कुल ओछी बुद्धिकी बात है। जबसे भारतीयोंके विरुद्ध लड़ाई आरम्भ हुई है तभीसे गोरोंकी दृष्टि भारतीयोंके व्यापारपर गड़ी है। और वे परेशान भी केवल व्यापारियोंको करते हैं। अलबत्ता, कुछ स्वार्थी गोरे उन्हें अपने ही हाथों अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मारनेके लिए कहते हैं; अर्थात् यह सलाह देते हैं कि वे लोग अलग रहें तो उनको हानि नहीं पहुँचेगी। फिर कुछ यह भी कहेंगे कि दूसरोंके मामलोंमें न पड़ें तो हानि नहीं होगी। सभीसे ऐसी बात कही जाती है। तब क्या इससे यह निष्कर्ष निकालना चाहिए कि किसीको हानि न पहुँचेगी ? सच तो यह है कि यदि वे हम लोगोंको फुसलाकर और झूठा लालच दिखाकर हमारा नाश कर सकें तो वे इसे तरजीह देंगे। यदि इस रीतिसे नहीं कर सकें, तो फिर किसी दूसरी रीतिसे करेंगे ।

१ और २. देखिए “संघ शासनमें भारतीय ", पृष्ठ ३२७ । Gandhi Heritage Portal