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२७६. बालकके मुकदमेका फैसला

जस्टिस वेसेल्सका फैसला श्री छोटाभाईके पुत्रके विरुद्ध हुआ है । यदि यह फैसला कायम रहता है, तो भारतीय समाजकी स्थिति अत्यन्त विषम हो जायेगी और थोड़े ही समयमें उसकी जड़ें उखड़ जायेंगी। इस निर्णयके विरुद्ध अपील दायर कर दी गई है। उसका परिणाम इस टीकाके प्रकाशित होनेके दो या तीन दिनके भीतर ही मालूम हो जायगा । अपील-अदालतका निर्णय कुछ भी हो, हमें उससे खास सरोकार नहीं। जस्टिस वेसेल्सकी अदालतके इस मुकदमेका विवरण हम अन्यत्र दे रहे हैं। वह गौरसे पढ़ने लायक है। जस्टिस वेसेल्सका कहना है कि सरकारका यह कार्य अन्यायपूर्ण और अमानवीय है और यदि इस नीतिपर आग्रह रहा तो उसके खिलाफ सभ्य संसारम चीख-पुकार मच जायेगी । सभ्य संसार क्या कहता है, सो हमें देखना है। परन्तु इतना तो निश्चित है कि, जैसा जजने कहा है, सरकारने जुल्म किया है।

यदि बात ऐसी है, तो फिर न्यायाधीशने अपना निर्णय क्यों खिलाफ दिया ? हरएकके मनमें यही प्रश्न उठेगा। यह आजकलकी अदालतोंकी अधम स्थितिका सूचक है। अदालतें न्यायकी जगह अन्याय कर सकती हैं। यदि कानूनका शाब्दिक अर्थ सच्चे न्यायके विरुद्ध पड़ता हो तो भी अदालतें शाब्दिक अर्थका ही अनुसरण करती हैं और उसीको अदालतोंका इन्साफ माना जाता है। दूसरे शब्दोंमें, जस्टिस वेसेल्स इन्सानकी हैसियतसे जिस बातको अन्यायपूर्ण ठहराते हैं, उसीको न्यायाधीशकी हैसियतसे न्यायो- चित मानते हैं ।

इस प्रकारके न्याय अथवा अन्यायके होते हुए हम खामोश नहीं बैठ सकते । स्थान-स्थानपर इस सम्बन्धमें सभाएँ करनी होंगी और प्रस्ताव पास करने होंगे । जबतक इस मामलेका निपटारा सन्तोषजनक रीतिसे न हो जाये, तबतक हम निश्चिन्त होकर नहीं बैठ सकते ।

निर्णय और रिपोर्टको पढ़नेपर देखा जा सकता है कि ट्रान्सवालके बाहर जन्मे बच्चे १९०७ के कानूनके अन्तर्गत भी ट्रान्सवालमें प्रवेश नहीं पा सकते। इस मुद्देपर ग्रेगरोवस्कीने बहुत लम्बी बहस की, किन्तु जस्टिस वेसेल्सका निश्चित मत था कि ऐसे बालकोंको १९०७ के कानूनके अन्तर्गत कोई संरक्षण प्राप्त नहीं है।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २४-९-१९१०

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