पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 10.pdf/३९५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

२७९. गिरमिटिया भारतीयोंकी दुर्दशा

हमारा खयाल है कि अगर हम सावधान न रहे होते और हमने विरोध में आवाज न उठाई होती तो नेटाल मर्क्युरी' में 'स्पॉटेड फीवर' शीर्षकसे जो लेख छपा है वह न छपा होता । वस्तुस्थिति इस प्रकार है : इस मासके प्रारम्भमें 'उम्लोटी' नामक जहाजमें कुछ गिरमिटिया भारतीय आये । ये लोग खास तौरपर सर लीज़ हलेटके कामके लिए भारतसे लाये गये थे । उनमें गर्दन-तोड़ बुखार (स्पॉटेड फीवर) फैल गया। समाचार मिला है कि फलस्वरूप अनेक भारतीय मर गये हैं। जब यह समाचार हमें मिला तब हमने भारतीयोंके संरक्षकको पत्र लिखकर हकीकत जाननी चाही। उत्तरमें टाल-मटोलसे भरा हुआ पत्र मिला; हमने फिर लिखा। उत्तरमें कहा गया कि हम 'मर्क्युरी'को देख लें। 'मर्क्युरी" में जो विवरण प्रकाशित हुआ था उसे पढ़कर भी हमें सन्तोष नहीं हुआ। सच तो यह है कि 'संरक्षक' महोदयको चाहिए था कि वे हमें पूरी जानकारी देते। हम यहाँ उनकी अशिष्टताके बारेमें कुछ नहीं लिख रहे हैं। 'मर्क्युरी' में प्रकाशित विवरणसे, जिसे 'संरक्षक' का विवरण ही माना जा सकता है, यह स्पष्ट है कि 'संरक्षक' महोदयको अपने रक्षितोंकी कोई चिन्ता नहीं है; चिन्ता केवल इस बातकी है कि कहीं यूरोपीयोंमें यह ज्वर न फैल जाये । इसलिए वे कहते हैं कि ऐसी आशंकाका कोई कारण नहीं है। इसके अतिरिक्त इस भयसे यदि यह बात फैल गई कि इस प्रकारकी बीमारियाँ केवल गिरमिटिया भारतीयोंमें ही फैला करती हैं तो शायद गिरमिटिया भारतीयोंका आना ही बन्द हो जायेगा, 'संरक्षक' महोदयने अपनी रिपोर्ट ऐसी चतुराईसे लिखवाई है कि वह सभी भारतीयोंपर लागू हो जाती है। असल बात यह है कि गिरमिटिया भारतीयोंको छोड़कर अन्य भारतीयोंमें शायद ही कभी यह बीमारी फैलती है। उन्होंने यह कैफियत तो बतलाई ही नहीं कि कितने गिरमिटिया आये, किस कामके लिए आये, उनमें से कितने बीमार हुए और जो बीमार नहीं पड़े, वे कहाँ हैं। हम यह मामला छोड़नेवाले हैं ।इसके लिए अन्त तक लड़ेंगे । आशा है कि कांग्रेस भी इस बातको उठायेगी ।

इसके अतिरिक्त ‘संरक्षक' कहता है कि यह बीमारी उन जगहोंमें हुआ करती है जो गन्दगीके घर हैं और जहाँ धूप और रोशनी नहीं पहुँचती। लेकिन अब तो यह बीमारी जहाजमें फूट निकली। वहाँ देखरेख और जिम्मेदारी संरक्षककी या उसके एजेंटकी थी। उसने लोगोंको गन्दी, अंधेरी और स्वच्छ वायु-विहीन जगहमें रहने ही क्यों दिया ? साफ है कि इस बारेमें दोष संरक्षकका ही है। ऐसी दुर्दशा तो केवल उन्हींकी हो सकती है जो गिरमिटमें -- गुलामीमें- - जकड़े हुए है। जो भारतीय ऐसी


१. यह विवरण तथा इस लेख में उल्लिखित पत्र और उनके उत्तर १-१-१९१० के इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित किये गये थे ।