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२८९. दक्षिण आफ्रिका ब्रिटिश भारतीय लिखे गये पत्रसे उद्धरण

[ जोहानिसबर्ग
अक्तूबर १६, १९१०के बाद ]

••• आपको यह सुनकर गहरा दुःख होगा कि एक और सत्याग्रहीकी मृत्यु हो गई है। उसका नाम ए० नारायणस्वामी था । वह उन लोगोंमें से था जो भारतसे श्री पोलकके साथ लौटे थे और जिनको डर्बनमें उतरनेकी अनुमति नहीं दी गई थी । वह अपने ३१ अन्य साथियोंके साथ पहले पोर्ट एलिज़ाबेथ और वहाँसे केप टाउन गया । वहाँ भी उसे और उसके साथियोंको जहाजसे उतरनेसे रोक दिया गया। इस बातकी पूरी संभावनाके बावजूद कि अन्ततः वह भारत वापस भेज दिया जायेगा, विवश होकर उसे डर्बन लौटना पड़ा। श्री रिचका कहना है कि उसके और अन्य सत्याग्रहियों के पास न तो जूते थे और न हैट ही; यहाँतक कि तन ढँकनेके लिए पूरे कपड़े भी नहीं बचे थे; क्योंकि पोर्ट एलिज़ाबेथमें उनका सामान चोरी चला गया था। यदि केप टाउनके स्थानीय भारतीयोंने कृपा न की होती तो उनको भूखा-प्यासा ही डर्बन लौटना पड़ता। इस प्रकार ये लोग असाधारण रूपसे कठिन परिस्थितियों में लगातार लगभग दो महीनेसे जहाजपर ही हैं। फिर इसमें आश्चर्य ही क्या कि बेचारा नारायणस्वामी मृत्युका शिकार हो गया ! मैं नहीं मानता कि यह मृत्यु स्वाभाविक है। निःसन्देह यह कानूनकी आड़ में हत्या है।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडिया, १८-११-१९१०

२९०. पत्र : अखबारोंको

जोहानिसबर्ग
अक्तूबर १७, १९१०

महोदय,

कुछ रोज पहले अधिकांश समाचारपत्रोंने प्रिटोरियासे भेजा हुआ इस आशयका एक तार प्रकाशित किया था कि जिस एशियाई प्रश्नने सारे उपनिवेशको पिछले चार वर्षोंसे क्षुब्ध कर रखा है, वह अन्ततः अब सन्तोषजनक रीतिसे सुलझनेको है। लोगोंने

१. पत्रमें उल्लिखित नारायणस्वामीकी मृत्यु १६-१०-१९१० को हुई थी ।

२. यह “डेथ ऑफ़ ए डिपोर्टो” ( एक निर्वासितकी मृत्यु ) शीर्षकसे रैंड डेली मेलमें और २२-१०-१९१० के इंडियन ओपिनियन में सम्पादकके नाम एक पत्रके रूपमें प्रकाशित हुआ था। यह अक्तूबर १८, १९१० के ट्रान्सवाल लीडरमें भी प्रकाशित हुआ था ।