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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

समझा था कि इस समाचारका सूत्र कहीं सरकारी हलकोंमें होगा। परन्तु इसके तुरन्त बाद ही इस प्रान्तके सबसे अधिक दृढ़ और समादृत भारतीयोंमें से एक, अर्थात् श्री सोराबजी, गिरफ्तार कर लिये गये । और इसके बाद ही उनके उतने ही बहादुर तीन साथी सत्याग्रही -- सर्वश्री थम्बी नायडू, सोढा और मेढ --भी गिरफ्तार कर लिये गये ।

परन्तु केवल यही जानकारी देनेके लिए मैं आपके सौजन्यका अनुचित लाभ उठाकर जनताका ध्यान इधर नहीं दिला रहा हूँ। मेरी नम्र रायमें यहाँको जनताको उन भारतीयों और चीनियोंके कष्टोंकी कुछ जानकारी दे देना जरूरी है जो भारतको निर्वासित कर दिये गये थे और जो पिछले मासके लगभग अन्तमें 'सुल्तान' नामक जहाजसे दक्षिण आफ्रिका लौटे हैं। ये सारे लोग ट्रान्सवालके वैध निवासी हैं और कुछकी तो पैदाइश भी दक्षिण आफ्रिकाकी ही है।

इस दुःखद प्रकरणका अन्त नारायणस्वामी नामक एक अत्यन्त सरल और न्यायभीरु भारतीयकी मृत्युमें हुआ है। एक निर्वासितके रूपमें जब वह यह प्रान्त छोड़कर भारतके लिए रवाना हुआ था, तब उसकी तन्दुरुस्ती अच्छी थी । परन्तु छः हफ्तेसे अधिक समय तक उन्हें भिन्न-भिन्न जहाजोंकी डेकपर रहना पड़ा, हर तरहके मौसमकी विभीषिकाएँ सहनी पड़ीं और यह उनकी जैसी तन्दुरुस्तीवालेके लिए भी बहुत भारी पड़ गया। श्री रिचने बताया है कि जब उनका जहाज टेबल-बेमें पड़ा हुआ था उस समय उन्हें तथा उनके निर्वासित साथियोंको अपने मित्रों और कानूनी सलाहकारों तक से एक हफ्ते तक नहीं मिलने दिया गया। और अन्तमें जब श्री रिच सर्वोच्च न्यायालयसे हुक्मनामा लाये तब जाकर उन्हें (श्री रिचको) उन लोगोंसे मिलने दिया गया। श्री रिचने केपके समाचारपत्रोंको भेजे गये अपने एक पत्रमें बताया है कि उन्होंने देखा कि इन सत्याग्रहियोंके पैरोंमें न तो जूते थे और न सिरपर टोपियाँ । कुछके पास तो शरीर-रक्षाके लिए पर्याप्त कपड़े भी नहीं थे । और ये सब उस जहाजके खुले डेकपर ठंडसे काँप रहे थे। उन्हें पहले तो डर्बनमें, फिर पोर्ट एलिजाबेथमें, इसके बाद केपमें और अन्तमें दूसरी बार फिर डर्बनमें जहाजसे उतरनेसे रोक दिया गया। इस बार तो प्रवासी-अधिकारीके नाम सर्वोच्च न्यायालयकी इस स्पष्ट आज्ञाकी भी अवहेलना की गई कि इन सत्याग्रहियोंको नेटालके प्रान्तीय विभाग (प्रॉविंशियल डिवी- जन) के अधिकार क्षेत्रसे बाहर न भेजा जाये । यह अधिकारी सीधे गृह-मन्त्रीके आदेशोंके अनुसार काम कर रहा था। उसने अपने प्रधानको खुश करनेके लिए अति उत्साहमें आकर अदालतके हुक्मका ऐसा अर्थ लगाया जैसा कि कोई साधारण बुद्धिवाला आदमी भी नहीं लगा सकता था, और इस तरह अपनी बेहूदी जल्दबाजीमें इन लोगोंको डेलागोआचे भेज दिया जिसके परिणामस्वरूप, जैसा कि ऊपर कहा गया है, नारायण- स्वामीकी मृत्यु हो गई।

नागप्पनकी मृत्युको कानूनकी आड़में हत्या कहनेमें मुझे कुछ संकोच और हिच- किचाहट नहीं मालूम हुई। मुझे लगता है कि नारायणस्वामीकी मृत्यु भी निश्चय ही उसी श्रेणीकी है। हमारे अपने न्यायालयका प्रमाण मेरे पास है जिसके आधार- पर मैं कह सकता हूँ कि शासकीय आज्ञासे किया जानेवाला नारायणस्वामी जैसा