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२९२. नारायणस्वामी

नारायणस्वामीकी मृत्यु हो चुकी है, परन्तु वे मरकर भी जीवित हैं। उन्होंने देह तो त्याग दिया, परन्तु वे अपना नाम अमर कर गये। मरना-जीना सबके साथ लगा हुआ है। अगर हम जरा गहराईसे सोचें तो पता चलेगा कि मृत्यु जल्दी आये या देरसे, उसमें हर्ष या शोककी कोई बात नहीं है। परन्तु समाजकी सेवा करते हुए अथवा कोई दूसरा परोपकार करते हुए मरना जीवित रहनेके समान है। क्या ऐसा भी कोई देशभक्त भारतीय होगा जो देशके लिए मरनेको तैयार न हो ? इस प्रश्नमें इतना ग्रहीत है कि सभी देशप्रेमी भारतीय अपने देशके लिए मरनेको तैयार ही होंगे। जबतक हममें यह [ भावना ] न हो तबतक हम स्वदेशाभिमानी नहीं माने जा सकते ।

नारायणस्वामीने बहुत कष्ट सहे । [ जहाजके ] डेककी यात्रा बहुत ही परेशान करनेवाली होती है और उसमें अगर किसीके पास पर्याप्त कपड़े न हों और अन्य असुविधाएँ हों तब तो यह यात्रा बहुत कष्टकर हो जाती है । नारायणस्वामीने ऐसी यात्रा देशके हितके लिए की । वह दुःख भोगता हुआ चल बसा। हम नारायणस्वामीको सच्चा सत्याग्रही मानते हैं। बड़े-बड़े सत्याग्रहियोंके विषयमें जो बात हम नहीं कह सकते, वह नारायणस्वामीके विषयमें कही जा सकती है। उसकी मृत्यु पक्के सत्याग्रहीकी भाँति हुई है। वीर सत्याग्रहीकी प्रशंसा भी तभी की जा सकती है जब वह अपनेको पूर्ण रूपसे उसका पात्र सिद्ध कर चुकता है।

नागप्पन अपना नाम अमर करके चला गया । नारायणस्वामीने भी वैसा ही किया है। उसकी मृत्युके लिए हम उसके कुटुम्बियोंके साथ समवेदना प्रकट करते हैं; साथ ही हम उनको बधाई भी देते हैं। धन्य हैं नागप्पन और नारायणस्वामीकी माताएँ, जिन्होंने उन्हें जन्म दिया।

यद्यपि इस प्रकार हम नारायणस्वामीकी मृत्युको पवित्र मानते हैं तथापि ट्रान्स- वाल सरकारको हम कानूनकी आड़में उसके खूनका दोषी ठहरा सकते हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्तिको ऐसी स्थितिमें डाल दे जिससे उसकी मृत्यु हो जाये तो पहला व्यक्ति दूसरेकी हत्याका दोषी माना जायेगा । नारायणस्वामीके बारेमें भी ऐसा ही हुआ है। नारायणस्वामी और उसके साथियोंको डर्बनसे पोर्ट एलिज़ाबेथ, वहाँसे केप टाउन, केप टाउनसे फिर डर्बन - इस प्रकार भटकाया गया। रहने, पहनने, ओढ़ने और खाने-पीनेका कष्ट बहुत था । यदि पहनने और खानेका सामान भारतीय समाज उन्हें न पहुँचाता तो अन्य भारतीयोंकी भी ऐसी ही दशा होती । ट्रान्सवालकी सरकारका यह व्यवहार बहुत कठोर हुआ और उसकी इस कठोरताके कारण ही नारायणस्वामीकी

१. देखिए “ द० आ० वि० भा० समितिको लिखे गये पत्रसे उद्धरण", पृष्ठ ३५९ और “ पत्र : अखबारोंको ", पृष्ठ ३५९-६१ ।