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२९४. ट्रान्सवालमें व्यापारका अनुमतिपत्र

ट्रान्सवालकी सरकार और ट्रान्सवालके गोरे ऐसे नहीं है कि ट्रान्सवालके भारतीय व्यापारियोंको सुखसे बैठने दें। ट्रान्सवालकी नगरपालिकाएँ इस आशयके प्रस्ताव पास कर रही हैं कि भारतीय व्यापारियोंको नुकसानका मुआवजा देकर उन्हें इस देशसे निकाल दिया जाये । हमने कुछ भारतीयोंको इन विचारोंपर पसन्दगी जाहिर करते हुए सुना है। उनका खयाल है कि यदि इतना [ मुआवजा दे दिया जाये कि उसमें उनका नफा भी आ जाये तो इस मुल्कको छोड़कर चले जानेमें कोई नुकसान नहीं है। यह विचार अल्प बुद्धिका द्योतक है। पहली बात तो यह है कि हम जितना समझते हैं उसका चौथाई हिस्सा नफा भी हमें मिलनेवाला नहीं है। जो कानून बनाया जायेगा उससे [ मालके ] दाम बाजार-भावसे ज्यादा शायद ही मिलें। उस हालतमें भारतीय चौपट हो जायेंगे । दक्षिण आफ्रिकावासी भारतीयोंमें से शायद ही कोई देशमें जाकर अधिक कमाई करता है। सभी इस देशमें लौट आते हैं। इस स्थितिमें मुआवजा लेकर इस देशको छोड़कर चले जानेका खयाल करना साफ नासमझी है। फिर, सरकार हमें इस तरह जबर्दस्ती निकाले और हम चले जायें तो हम कायर माने जायेंगे -- यह बात ध्यानमें रखनी चाहिए। हम मानते है कि इस देशमें गोरोंको जितना अधिकार है उतना ही हमारा भी है। एक दृष्टिसे हमारा अधिकार अधिक है। इस देशके मूल निवासी तो केवल हब्शी ही कहे जा सकते हैं। हमने मारपीट करके उनसे इस देशको नहीं छीना है; बल्कि हम उनको प्रसन्न करके इसमें रह रहे हैं। गोरोंने तो इस देशको उनसे छीन लिया है और वे इसे अपना बनाकर बैठ गये हैं। इससे इसपर उनका अधिकार तो नहीं हो जाता । यहाँ अधिकार बनाये रखनेके लिए उन्हें फिर लड़ना पड़ेगा, यह बात उन्हीं में से बहुत से लोग मानते हैं। परन्तु यह बात जाने दें। जो जैसा करेगा, वैसा भरेगा। हमें तो यही बताना है कि यदि भारतीय थोड़े-से पैसेकी खातिर मुआवजा लेकर चले जायेंगे तो वे स्वार्थी माने जायेंगे। यदि डरसे चले जायेंगे तो कायर माने जायेंगे। हमें आशा है कि कोई भारतीय इनमें से एक भी विशेषण स्वीकार करनेके लिए तैयार न होगा ।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २२-१०-१९१०