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केपके भारतीयोंकी दशा असन्तोषजनक

और केपके लिए और अधिक कड़ा कानून बनानेका समर्थन करें। ईमानदारीकी बात तो यह है कि, जैसा कि केप और नेटालके सर्वोच्च न्यायालयके अभी हालके निर्णयोंसे सिद्ध भी हो गया है, वहाँका कानून ऐसे ही बहुत कड़ा है।

[ अंग्रेजीसे ]

इंडियन ओपिनियन, ५-११-१९१०

३०१. केपके भारतीयोंकी दशा असन्तोषजनक

हमें केरीदोवसे एक भारतीयने अंग्रेजीमें एक पत्र लिखा है। उसका कहना है कि ट्रान्सकाई आदि वतनी तालुकोंमें, जो केपके अधीन हैं, भारतीयोंको प्रवेश ही नहीं करने दिया जाता। उनमें केवल गोरे व्यापारियोंको ही जाने दिया जाता है । गोरे व्यापारी वतनियोंको लूटते हैं। एक भारतीय 'वेटर' बनकर ट्रान्सकाईमें गया था । मजिस्ट्रेटने उसे कुत्तेकी तरह निकाल बाहर किया। उससे अनुमतिपत्र माँगा गया; वह तो उसके पास था नहीं। उसको यह तक मालूम न था कि अनुमतिपत्र होता क्या है; क्योंकि उसने तो यह समझ रखा था कि केपमें भारतीय जहाँ चाहें वहाँ घूम-फिर सकते हैं । इस लेखकने लिखा है कि ट्रान्सवालमें संघर्ष चल रहा है, इसलिए अभी उतनी सख्ती नहीं बरती जा रही है; अन्यथा केपमें हालत बिलकुल ही बिगड़ जाती ।

इस पत्रपर केपके भारतीयोंको विचार करना चाहिए। केपके भारतीय संघको इस सम्बन्धमें सरकारसे लिखा-पढ़ी करना चाहिए और पूछना चाहिए कि सरकार वर्तनियोंके प्रदेशमें किस कानूनके आधारपर नहीं जाने देती । इतना करके ही बैठ नहीं जाना है। संघ-संसदकी गतिविधिका अध्ययन करके हमें अपना काम बहुत सावधानीसे चलाना होगा। श्री रिच केपमें हैं, इसलिए केपके भार- तीयोंको उनकी सहायता मिल ही सकती है। इसका लाभ उठाकर समुचित कार्रवाई की जानी चाहिए।

सुननेमें आया है कि सरकार पंजीयन कानूनको समस्त दक्षिण आफ्रिकामें लागू करना चाहती है और उसका इरादा यह है कि समस्त दक्षिण आफ्रिकामें प्रतिवर्ष केवल छ: भारतीय प्रवेश कर सकें। हमारा खयाल है कि यह बात केप और नेटाल कदापि स्वीकार न करेंगे ।

[ गुजरातीसे ]

इंडियन ओपिनियन, ५-११-१९१०

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