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३२६. पत्र : प्रिटोरियाके जेल-निदेशकको

[ जोहानिसबर्ग ]
नवम्बर २२, १९१०

आपके इसी २१ तारीखके पत्रके उत्तरमें, मेरे संघको यह जानकारी दी गई है कि भारतीय कैदियोंको कुछ वार्डरोंके अपमानजनक रवैयेके खिलाफ सख्त शिकायत है । लगता है ये वार्डर ठीक नहीं जानते कि मजाक किसे कहते हैं; और वे जिसे मजाक समझते हैं उसका भारतीय कैदियोंको उपयुक्त पात्र समझते हैं। उदाहरणके तौरपर, वे उनको 'कुली', 'सामी' और 'बनाना' [अर्थात् केले या केले खानेवाले ] जैसे नामोंसे पुकारते हैं। इसकी और अन्य तरीकोंसे सताये जानेकी शिकायतें मुख्य वार्डरसे लगातार की जाती रही हैं; लेकिन वह या तो अनसुनी कर देता है या फिर बड़े अपमान- जनक ढंगसे उनका उत्तर देता है। पौधोंकी देखरेखके लिए तैनात प्रधान वार्डर, मैक्लाउडके रवैयेके बारेमें तो विशेष तौरपर शिकायत की गई है। संघको पता चला है कि इस अधिकारीका तो कैदियोंको तंग करनेका एक तन्त्र ही है; वह उनसे वशके बाहरके काम करनेको कहता है और फिर शिकायतें करके उनको दण्ड दिलानेके मौकेकी टोहमें रहता है । इस अधिकारीके बारेमें गवर्नरसे बार-बार शिकायतें की जाती रही हैं। मेरे संघको मालूम हुआ है कि एकसे अधिक बार उसे तलब किया जा चुका है; और कमसे-कम दो मौकोंपर भारतीय कैदियोंपर लगाये गये उसके आरोप, जाँच-पड़तालके बाद, बिलकुल गलत सिद्ध हो चुके हैं। पर लगता है कि इतनी शिकायतोंके बावजूद भारतीय कैदियोंके प्रति श्री मैक्लाउडके रवैये में कोई सुधार नहीं हुआ है; और अब भारतीय कैदी उसके और मुख्य वार्डरके बरतावसे तंग आ गये हैं ।

यदि सम्बन्धित अधिकारी इन आरोपोंको सही माननेसे इनकार करें तो मेरे संघको कोई अचम्भा नहीं होगा। पहले भी कई बार ऐसा हुआ है । यह मानकर कि इस बार भी वही होगा, हम यही कहना चाहते हैं कि जबतक कोई कैदी खुद बहुत ज्यादा कष्ट महसूस न करे तबतक वह, श्री मेढकी तरह, सात-सात दिन तक खाना खानेसे इनकार नहीं करेगा ।

इसलिए आप इस मामलेकी तुरन्त जाँच करानेकी कृपा करें। मेरा संघ उसके लिए आपका कृतज्ञ रहेगा ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३-१२-१९१०

१. ब्रिटिश भारतीय संघके अध्यक्षके हस्ताक्षर से भेजे गये इस पत्रका मसविदा अनुमानतः गांधीजीने तैयार किया था । देखिए पिछला शीर्षक ।