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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मुसीबतोंके कारण सम्राट्के प्रति समाजकी वफादारीमें किसी प्रकारकी कमी नहीं आई है और शाही मेहमानोंके प्रति उसकी अपनी स्वागत-भावनामें तनिक भी अन्तर नहीं पड़ा है - अच्छा ही हुआ है।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३-१२-१९१०

३३५. खेतीको बलिहारी

हे किसान ! तू इस जगतका पिता ठीक ही माना गया है।
तू ही इस समस्त संसारका पालन करता जान पड़ता है।
तू कपास, फल, फूल, घास और अन्न उगाता है ।
सब जीवधारी तेरा अन्न खाते हैं और सभी लोग तेरे वस्त्र पहनकर शोभा पाते हैं ।
तू धूप और वर्षा सहता है और बहुत श्रम करता है ।
तू हृष्ट-पुष्ट रहता है और सदा प्रसन्न घूमता है ।
एक तो खेतीका कार्य ही उत्तम है और फिर तू उसके द्वारा परोपकार करता है। अपनी सच्ची लगनसे तू संसारको अच्छी सीख देता है ।

यह कविता हमने दूसरी [गुजराती ] पुस्तकमें से ली है । पाठशालामें हममें से बहुत-से इसे पढ़ चुके हैं; किन्तु इसे गुना कितनोंने है ? किसान जगतका पिता है, इसमें सन्देह नहीं । परन्तु किसान इसे नहीं जानता, यह उसकी विशेषता है। वस्तुतः अच्छे काम करनेवाले लोग अपनी भलमनसाहतके सम्बन्धमें अनजान रहते हैं । हम प्रतिक्षण श्वास-प्रश्वास लेते हैं, परन्तु हम जैसे यह कर्म बिना जाने करते रहते हैं वैसे ही अच्छे लोग अपनी भलमनसाहत स्वाभाविक रूपसे प्रकट करते रहते हैं। उन्हें न मानका भान होता है और न उसकी परवाह । किसानके आगे जाकर यदि हम उक्त कविता गायें तो वह उसे हँसीमें उड़ा देगा। वह हमारी बात समझेगा भी नहीं । वह ऐसा सच्चा पिता और सच्चा परोपकारी है।

हम कविता गानेवाले क्या करते हैं? यदि किसान वास्तवमें पिता हो और उसका धन्धा सचमुच सर्वोच्च हो तो हम लोग इतने सारे कपड़े क्यों लपेटे फिरते हैं ? ज्यादासे ज्यादा दाम लेनेकी फिक्रमें गरीबोंको क्यों चूसते हैं। बाबू बनकर ठाठदार कपड़े पहननेमें ही क्यों मनुष्यता मानते हैं ?

ऐसी हमारी मूढ़ दशा है। हम खेतीकी बात-भर करते हैं- वह हमारे केवल कण्ठमें है । और कण्ठमें ऐसी जम गई है कि वहाँसे नीचे उतरती ही नहीं ।

जो भारतीय इस देशमें सुखपूर्वक रहना चाहते हैं अथवा भारतका सच्चा कल्याण करना चाहते हैं उनको उक्त कवितापर विचार करके उसके अनुसार आचरण करना