उचित है। एक भी पाठकको यह बात ठीक जान पड़े कि उसे तो खेती ही करनी है तो उसे किसी दूसरेकी प्रतीक्षा नहीं करनी चाहिए ।
इंडियन ओपिनियन, ३-१२-१९१०
३३६. भारतीय और ड्यूक महोदय
दक्षिण आफ्रिकामें एक अपूर्व घटना घटी है। भारतीय समाज हमेशा शाही मेहमानोंको मानपत्र भेंट करता आया है और [ उनके अभिनन्दनके] सार्वजनिक समारोहों में भाग लेता रहा है ।
इस अवसरपर माननीय ड्यूकके [आगमनके] विषयमें केपने पहली बार एक नई रीति अपनाई । वहाँके भारतीयोंने यह किया कि उनके पास मानपत्र तो भेजा, परन्तु समारोहमें शरीक नहीं हुए ।
ट्रान्सवाल इस उदाहरणका अनुसरण करते हुए एक कदम और आगे बढ़ गया । उसने मानपत्र न भेजनेका कारण बताते हुए ड्यूक महोदयको अपने कष्टोंसे परिचित कराया तथा पत्रके द्वारा अपनी राजभक्ति व्यक्त की । ड्यूकके सौजन्यपूर्ण उत्तरसे प्रकट है कि केपके भारतीयोंका यह कार्य अनुचित नहीं था । भारतीय समाज पीड़ित है और मातमकी मनःस्थितिमें है; फिर भला वह सार्वजनिक जलसोंमें भाग कैसे ले सकता है ? अगर उनमें भाग लेता भी है तो वह सच्चे हृदयसे लिया गया भाग नहीं हो सकता । जो हो, यह तो सभी मानेंगे कि श्री काछलिया और इमाम साहबके पत्र वाजिब थे । नेटाल कांग्रेसने भी वैसा ही कदम उठाया है, और ठीक किया है ।
अब इस कदमका असर आगे चलकर मालूम होगा । हमारी प्रामाणिकताके विषय में लोगोंके दिलमें अधिक गहरा विश्वास पैदा होगा और हम जो कुछ करेंगे उसे महत्त्व मिलेगा। लोग जान जायेंगे कि हम 'हाँ जी, हाँ जी' करनेवाले न होकर ऐसे लोग हैं जो अपने मन्तव्यको उचित भाषामें किसी सम्राट् तक के समक्ष रखनेमें नहीं हिचकिचाते ।
इंडियन ओपिनियन, ३-१२-१९१०
१. देखिए "शाही मेहमानोंका आगमन ", पृष्ठ ४०३-०४ ।