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३७. सेसिलके भारतीय

भारतीय जहाँ जाते हैं वहीं अखरने लगते हैं । परदेशमें कुछ समय रहनेके बाद वे ज्योंही व्यापार-व्यवसायमें भाग लेकर आगे बढ़े कि उनपर धावा बोल दिया जाता है । सेसिल टापूमें भारतीयोंकी आबादी खासी है और उसमें हर साल वृद्धि होती जा रही है। आनेवालोंमें ज्यादातर मलाबारी होते हैं। इस टापूमें दूकानें प्राय: भारतीयोंकी हैं। थोड़े चीनी व्यापारी भी देखनेमें आते हैं। बन्दरगाहमें अचल सम्पत्तिका बड़ा भाग भारतीयों द्वारा खरीदा और आबाद किया हुआ है। नेटालके समान ही यहाँकी खेती-बाड़ीका विकास भी भारतीयोंके द्वारा हुआ है । इस प्रकार भारतीय उपनिवेशको समृद्ध बनाकर स्वयं समृद्ध होते हैं। परन्तु इस सम्बन्धमें गोरोंकी भावना जानने योग्य है । इस टापूके गवर्नरने गत वर्षके विवरणमें लोगोंको चेतावनी दी है कि भारतीय व्यापारी जमींदार बनते जा रहे हैं। और कहा है कि भारतीय सामान्यत: निकृष्ट किसान हैं; क्योंकि वे जमीनका सारा कस एक साथ निकालकर, धनी बनकर स्वदेश चले जानेकी मनोवृत्ति रखते हैं। इस देशमें जमीनकी कीमत औसतन सौ रुपया प्रति एकड़ है; यद्यपि उपजाऊ जमीन प्राप्त करनेमें बड़ी कठिनाई होती है। इस विवरणसे तो यही पता चलता है कि भारतीय मामूली जमीनपर मेहनत करके देशको समृद्ध बनाते हैं और स्वयं समृद्ध होते हैं । तो फिर इसमें चेतावनी देने जैसी क्या बात है ? अंग्रेज कवि गोल्डस्मिथने लिखा है कि राजा और रईसोंकी अपेक्षा उद्योगी किसान देशकी बड़ी और सच्ची निधि हैं। देश और जनताका कल्याण इस निविसे भय खानेमें नहीं है, बल्कि उसको प्रोत्साहन देने में है ।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ३-१२-१९१०

३३८. पत्र : मगनलाल गांधीको

[ शुक्रवार, दिसम्बर ९, १९१० के पूर्व ]

चि० मगनलाल,

आज इतना ही भेज रहा हूँ। शेष तुम्हें शुक्रवारको मिलेगा । यदि यह सामग्री अधिक जान पड़े तो उसे मुलतवी रखना । उसे छापनेकी फिक्रमें अंकमें देरी न करना । मैं बहुत नहीं भेजूंगा । १. टॉमस टेलरके लेख फैलैसी ऑफ स्पीडका गुजराती अनुवाद, जिसका उल्लेख इस पत्रमें किया गया है, १०-१२-१९१० के इंडियन ओपिनियन में प्रकाशित हुआ है । यह पत्र ९ दिसम्बर, १९१० को पड़नेवाले शुक्रवारसे पूर्व लिखा गया होगा ।