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हिंदी स्वराज्य

बात नहीं ; वे कई पुस्तकें पढ़नेके बाद बने हैं। अपने मनमें भीतर ही भीतर मैं जिस चीजको महसूस करता था उसे इन पुस्तकोंसे समर्थन मिला।'

यह सिद्ध करनेकी तो कोई जरूरत नहीं कि जो विचार मैं पाठकोंके सम्मुख रख रहा हूँ, ऐसे कई भारतीय भी, जिन्हें 'सभ्यता' की छूत नहीं लगी है, उसी विचारके हैं। यूरोपके भी हजारों लोग ऐसा ही सोचते हैं, यह बात पाठकोंके मनमें मैं अपनी साक्षीके बलपर अंकित कर देना चाहता हूँ। जिन्हें इसकी खोज करनी हो और जिन्हें फुरसत हो वे उन पुस्तकोंको पढ़ सकते हैं। यथावकाश मैं इन पुस्तकोंमें से कुछ अंश पाठकोंके सम्मुख रखनेकी उम्मीद करता हूँ।

'इंडियन ओपिनियन के पाठकों या दूसरे लोगोंके मनमें मेरी यह पुस्तक पढ़कर जो विचार आयें, उन्हें यदि वे मझतक पहँचा दें तो मैं उनका कृतज्ञ होऊँगा।

मेरा उद्देश्य सिर्फ देशकी सेवा करने, सत्यको ढूंढ़ने और उसके अनुसार आचरण ।है। इसलिए यदि मेरे विचार गलत सिद्ध हों तो मैं उनसे चिपटे रहनेका आग्रह नहीं करूंगा। और यदि वे सही निकलें तो देशहितके अनुरोधसे मैं सामान्यतः यह इच्छा रखूगा कि दूसरे लोग उनके अनुसार आचरण करें।

सरलताकी दृष्टिसे मैंने अपनी बात पाठक और सम्पादकके संवादके रूपमें लिखी है।

मोहनदास करमचन्द गांधी
 

किल्डोनन कैसिल, २२-११-१९०९ [गुजरातीसे]

अध्याय १: कांग्रेस और उसके कर्ता-धर्ता
पाठक :
 

इस समय भारतमें स्वराज्यकी हवा बह रही है। सभी भारतीय स्वतन्त्रता पानेके लिए उत्सुक दिखाई देते हैं। दक्षिण आफ्रिकामें भी वही जोश फैला हुआ है। वहाँके भारतीयोंमें अपने हक हासिल करनेके लिए बहुत उत्साह आ गया दीखता है। इस विषयमें आपके क्या विचार हैं?

सम्पादक:
 

आपने सवाल किया, सो ठीक है। परन्तु उत्तर देना सरल नहीं है। अखबारका एक काम है लोगोंकी भावनाएं जानना और उन्हें प्रकट करना; दूसरा, उनमें अमुक आवश्यक भावनाएँ पैदा करना; और तीसरा, यदि उनमें दोष हों तो कैसी भी आपत्ति क्यों न आये, उन्हें बेधडक होकर कहना। आपके प्रश्नका उत्तर देनेमें ये तीनों काम एक-साथ करने पड़ेंगे। इसमें एक हद तक लोक-भावना बतानी पड़ेगी, कुछ ऐसी भावनाएँ जो नहीं हैं उत्पन्न करनेकी कोशिश करनी पड़ेगी और दोषोंकी निन्दा

१. देखिए " कुछ प्रमाणभूत ग्रन्थ ", हिन्द स्वराज्यका परिशिष्ट-१, पृष्ठ ६५-६६ ।


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