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३४०. धीरजका फल मीठा

जबसे समझौते की बात चली है तबसे भारतीय अधीर हो उठे हैं। अभी विधेयक क्यों प्रकाशित नहीं हुआ ? अब वह कब प्रकाशित होगा ? क्या वह जनवरी तक के लिए टल गया ? फरवरी तक के लिए तो नहीं टल जायेगा ? कहीं बिलकुल ही प्रकाशित न हुआ तो ? ऐसी अधीरता तो विह्वलता और कायरताका लक्षण है । हमें जो मिलना चाहिए वह तो ठीक समयपर मिलेगा ही । अधीर तो हम तब होते हैं जब हम किसी चीजको पानेके लायक न होते हुए भी उसे पाना चाहते हैं। पर इस प्रकार हम अपनी अयोग्यता भी सिद्ध कर देते हैं। जिस वस्तुके बारेमें हम यह जानते और मानते हैं कि वह हमें मिलनी ही चाहिए, उसके लिए व्यग्र होनेकी कोई बात नहीं है ।

विधेयक तुरन्त प्रकाशित हो, या देरसे, चाहे प्रकाशित ही न हो, इससे क्या ? वास्तवमें तो ज्यों-ज्यों विलम्ब होता है, त्यों-त्यों हमें दोहरा लाभ होता है । एक तो यह कि जो सच्चे भारतीय हैं उनको अबतक निखरनेका अवसर मिलता जा रहा है। दूसरे, जो लड़ाईमें भाग नहीं ले रहे हैं उन्हें भी विदित हो जायेगा कि यदि एक भी जूझनेवाला शेष रहा तो हमारी माँग पूरी होकर ही रहेगी। ऐसा समझनेवाला भारतीय चाहे सत्याग्रही हो चाहे न हो, अधीर न होगा । हमें समझना चाहिए कि अधीर होनेसे ही कार्य सम्पन्न होने में देरी होती जा रही है। हम साधारण कार्योंमें भी उतावली करते और फिर कुछ सूझ नहीं पड़ता। यही कारण है कि हमारे यहाँ 'उतावला सो बावला' और 'धीर सो गम्भीर' कहा जाता है। और इसीलिए हम सभी भारतीयोंसे धीरज रखनेका अनुरोध करते हैं । हैं तो बौरा जाते हैं

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १०-१२-१९१०

३४१. पत्र : मगनलाल गांधीको

टॉल्स्टॉय फार्म
अगहन सुदी ११ [ दिसम्बर १२, १९१०]

चि० मगनलाल,
तुम्हारा पत्र मिला ।
मैरित्सबर्ग में दिये गये मानपत्रोंके बारेमें कुछ कहना उचित नहीं जान पड़ता । दोनों निन्दाके योग्य हैं। मैं टिप्पणी लिखनेवाला तो था किन्तु ऐसा सोचकर कि शायद

१. एक गुजराती कहावत । २. कुमारस्वामीकी पुस्तकके उल्लेखसे जान पड़ता है कि यह " पत्र : मगनलाल गांधीको " ( पृष्ठ ३८१-८२ ) के बाद लिखा गया था । १९१० में अगहन सुदी ११, दिसम्बर की १२ तारीखको पड़ी थी।