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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रक्षाके लिए लड़ा जा रहा है। उन्होंने साफ शब्दोंमें कहा है कि इस संघर्षका प्रति- फल दुनिया भर में ब्रिटिश साम्राज्यके प्रत्येक हिस्सेपर पड़ेगा। अवश्य ही ऐसा होगा । जनरल स्मट्स जैसे व्यक्ति भी अब रंग-भेदकी बात भूल गये हैं। उनके दो अधिनियम जतला रहे हैं कि कानूनकी नजरमें तो सभी प्रजाजन एक-से माने जाने चाहिए। जो भारतीय ऐसे महत्त्वपूर्ण संघर्षमें पूर्ण रूपसे भाग ले रहे हैं वे बड़े भाग्यशाली हैं । उनकी दौलत बरबाद हुई, वे अपने बाल-बच्चोंसे जुदा भूखों मर रहे हैं, वे जेलोंमें सड़ रहे हैं, किन्तु इस सबसे क्या होता है ? देशके मानकी खातिर वे अपना सर्वस्व खो दें तो भी उनका यह खोना सब कुछ पानेके बराबर है। ऐसे उद्देश्यके लिए मरना जीने के समान है । तो फिर श्री टाटा जैसा कोई धनाढ्य भारतीय इस प्रकारके संघर्षके लिए धन अर्पित क्यों न करे ? उन्हें इस बातका दुःख है कि अन्य भारतीय पर्याप्त उत्साह नहीं दिखा रहे हैं। बात दुखी होनेकी है; फिर भी दुःख माननेकी जरूरत नहीं है। ज्यों-ज्यों समय बीतता जायेगा --ज्यों-ज्यों संघर्ष लम्बा होता जायेगा त्यों-त्यों हमारे संघर्षकी महिमा बढ़ेगी ।

श्री टाटा चाहते हैं कि संघ-संसद शीघ्र ही ऐसा रास्ता ढूंढ निकाले जिससे हमारे मानकी रक्षा हो । हमारी भी यही इच्छा है । और थोड़े ही समय में इस प्रकारके समझौतेकी सम्भावना भी है।

फिर भी भारतीय समाजको कोई बड़ी आशा न रखनी चाहिए। जनरल स्मट्ससे पाला पड़ा है। ये महाशय ऐसे हैं कि क्षण-भरमें अपनी बातसे मुकर जा सकते हैं। ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों उनका यह खयाल बनता जा रहा है कि सत्याग्रही घुटने टेक देंगे । और यदि हम सब घुटने टेक ही देंगे तो वे समझौता क्यों करने लगे ? परन्तु उनकी यह अपावन इच्छा सफल होनेवाली नहीं है । हमें पूर्ण विश्वास है कि यदि एक भी सत्याग्रही डटा रहा तो अधिनियममें संशोधन होकर ही रहेगा। महान् थोरोका कथन है कि किसी भी अच्छे संघर्षमें जबतक शुद्ध अन्तःकरण वाला एक भी व्यक्ति होगा तबतक उस संघर्षमें पराजय हो ही नहीं सकती; उसमें विजय अवश्यम्भावी है। हकीकत तो यह है कि चाहे अभी कुछ और भी सत्याग्रही घुटने टेक दें तो भी कुछ तो अवश्य ही ऐसे बच रहेंगे जो मरते दम तक लड़ेंगे। धीराने' कहा है कि मरनेके लिए तैयार गोताखोर ही मोती ला सकते हैं। यहाँ भी वही बात है। यह संघर्ष ऐसा वैसा नहीं है। आइए, इसमें प्राणोंकी आहुति दें और इस प्रकार मरकर जियें । तिलका बीज पेरे जानेपर तेल देता है; इसमें तिलका कुछ बिगड़ता नहीं, प्रत्युत उसका मूल्य बढ़ता है। जब मनुष्य समझ-बूझकर अपनेको पिरने देता है, तब उसमें से नैतिक शक्ति-रूपी तेल झरता है और उससे जगतका पोषण होता है । तिलकी भाँति इस प्रकार स्वेच्छासे कष्ट झेलनेवाले मनुष्यकी कीमत की जाती है। अन्यथा पैसे के लिए अथवा विषय-वासनामें फंसकर घुल-घुलकर मरना तो कीड़े- मकोड़ोंकी तरह मरना है। ऐसे व्यक्तिको कोई नहीं पूछता । १. ( १७५३-१८२५ ); एक गुजराती कवि ।