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कलकत्ते में दंगा

श्री टाटाके पत्र तथा उनके इस दानके फलस्वरूप हमारे कन्धोंपर दुगना बोझ आ पड़ा है। सत्याग्रहियों को अपने निश्चयमें और दृढ़ होना चाहिए और जो उस हद तक नहीं जा सकते उन्हें चाहिए कि जितना हो सके उतना द्रव्य दें ।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १७-१२-१९१०

३४५. कलकत्ते में दंगा

कलकत्ते में हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच जो दंगा हुआ उससे प्रत्येक भारतीयके मनमें तरह-तरह के विचार पैदा हो रहे होंगे। यह स्वाभाविक है । इस दंगेको हम धार्मिक दंगा नहीं मानते; अधार्मिक दंगा मानते हैं । संसारमें धर्मके नामपर कम अधर्म नहीं होता । थोड़ा विचार करें तो समझा जा सकता है कि मुसलमान गोवध करता है इसपर मारवाड़ी उसे मारने क्यों जाये ? अपने भाई, मुसलमानको मारनेसे गाय तो बचती नहीं, पाप दोहरा हो जाता है । अंग्रेज रोज गाय मारते हैं, हिन्दुओंको इससे क्यों क्रोध नहीं आता ? इसका उपाय मारधाड़ नहीं है, यह सहज ही समझमें आ जाता है। फिर मुसलमान भी गायको ही क्यों मारते हैं ? किन्तु जहाँ आपस में खींचतान चलती है वहाँ ऐसा ही होता है । हम इतने गिर गये हैं और अदालतों और वकीलोंके पंजे में इस हद तक आ गये हैं कि हमारे दिमागमें यह साधारण विचार तक नहीं आ पाता। यदि आये तो तुरन्त समझमें आ जाये कि मारवाड़ियोंको मुसलमानोंसे लड़ने की जरूरत नहीं है। उन्हें उनसे एक बार दो बार और वे न माने तो हजार बार भी, विनती ही करनी चाहिए। परन्तु यह विनती सच्ची विनती तभी कही जायेगी जब हमने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली हो कि वे न मानेंगे तो भी हम न लड़ेंगे और न अदालतमें जायेंगे। हम यह मामूली बात न समझ सकें और दंगा करें तो फिर इसे धर्मके नामपर धाड़ा ही कहा जायेगा ।

जिस प्रकार धर्मपरायण हिन्दुओंका सीधा कर्तव्य यही है, उसी प्रकार धर्मपरायण मुसलमानोंका कर्तव्य भी यही है । उन्हें भी लड़ना नहीं चाहिए । उनको भी जहाँ गोवध धार्मिक दृष्टिसे कर्तव्य न माना जाता हो, वहाँ गोवध नहीं करना चाहिए ।

किन्तु दोनों पक्षोंको एक-दूसरेकी प्रतीक्षा करते रहनेकी आवश्यकता नहीं है । कोई भी पक्ष, दूसरा क्या करेगा, इसका खयाल किये बिना सही कदम उठा सकता है ।

कुछ लोग ऐसा मानकर लड़ना ठीक नहीं समझते कि जबतक हम इस तरह लड़ते रहेंगे तबतक दूसरेके अधीन ही रहेंगे फिर चाहे इंग्लैंडके अधीन रहें, चाहे किसी अन्य बलवान् देशके । कुछ गहराई में जानेसे समझमें आ जाता है कि यह खयाल बिलकुल गलत है । वास्तवमें देखें तो दंगों का कारण ही पराधीनता है और जबतक हम यह मानते हैं कि यदि हम ज्यादा पिटेंगे तो सरकार हमारी रक्षा करने के लिए बैठी ही है, तबतक हमें जो एकमात्र धर्मयुक्त और सच्चा रास्ता है वह सूझ ही नहीं सकता अर्थात् हम