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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लोग घानीमें जुते हुए अन्धे बैलकी तरह उसी गोल घेरेमें चक्कर काटते रहेंगे और मनमें समझते रहेंगे कि हम आगे बढ़ रहे हैं। इस विषम स्थितिमें भी मुख्य मार्ग एक ही है कि परतन्त्र होते हुए भी हम ऐसा व्यवहार करें मानो स्वतन्त्र ही हों। ऐसा व्यवहार करते हुए जान भी देनी पड़े तो दे दें। यही अन्तिम कसौटी है। जिसने इस शरीरको दुलराया है, इस लोक अथवा परलोकमें, उससे कोई हित नहीं सघ सकता । अगर पुलिसने आकर हमारी रक्षा की तो यह बात हमारे लिए लज्जाजनक है। पुलिस क्या रक्षा करती है ? पुलिस तो हमें नामर्द ही बनाती है । दूसरेसे रक्षाकी आशा रखना शोभा नहीं देता ।

[ गुजरातीसे ]
इंडियन ओपिनियन, १७-१२-१९१०

३४६. पत्र : ऑलिव डोकको

[ जोहानिसबर्ग ]
सोमवार [ दिसम्बर १९, १९१० को या उसके बाद ]

प्रिय ऑलिव,

रामदास और देवदासने मुझे अभी-अभी बतलाया कि पिताजी बीमार हैं। सुनकर दुःख हुआ । मैं अभी इस समय तो दफ्तर नहीं छोड़ सकता। और फिर सीधा फार्म लौट जाऊँगा । मुझे वहीं सूचना भेजो कि पिताजीकी हालत कैसी है और उनको क्या कष्ट है । पता तो तुम जानती ही हो - टॉल्स्टॉय फार्म, लॉली स्टेशन ।

तुम्हारा
मो० क० गांधी

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल अंग्रेजी प्रतिकी फोटो नकल (सी० डब्ल्यू ४९२८) से ।

सौजन्य : सी० एम० डोक

३४७. समाचारपत्रोंके नाम पत्रसे उद्धरण

[ दिसम्बर २४, १९१० से पहले ]

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि जनरल स्मट्सने, (उनके अपने वक्तव्यके अनुसार ) एशियाई प्रश्नके सिलसिले में समझौतेके, इतने अनकरीब पार्लियामेंटमें दिये गये अपने वक्तव्यमें ऐसी बातें कहीं जो सही नहीं हैं । ' इंडियन ओपिनियन, २४-१२-१९१० १. लगता है यह “ पत्र : ऑलिव डोकको " (पृष्ठ ४१२ ) के बाद लिखा गया था । २. यह पाठ स्पष्ट ही अपूर्ण हे ।