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द० आ० बि० भा० समितिके नाम पत्रसे उद्धरण
विवादका विषय इतना ही था कि क्या निर्वासनके पश्चात् श्री क्विनको जितने काल तक नजरबन्द रखा गया, उतने काल तक नजरबन्द रखना उचित था । श्री नायडूवाले मुकदमेमें कुछ वैधानिक आपत्तियोंके प्रश्नपर निर्णय किया जाना था । वैधानिक आपत्तियाँ ये थीं कि जिन विनियमोंके अन्तर्गत श्री नायडूपर अभियोग लगाया गया था क्या वे उनके मामलेपर लागू होते थे और क्या पंजीयन अधिकारीकी नियुक्ति विधि सम्मत ढंगसे की गई थी। इस प्रकारकी गलतबयानीसे साधारणतया कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, लेकिन जिस सरकारी रिपोर्टमें यह गलतबयानी की गई है वहाँ इसका मन्शा सरकारके असाधारण आचरणका औचित्य सिद्ध करना है, इसलिए उसका खण्डन करना आवश्यक हो गया है। सत्याग्रही जेल जानेके आदी हो चुके हैं, अतः सरकारने उन्हें अदालतके जरिये सजा दिलाने की अपेक्षा उनको एक प्रशासकीय बोर्डके सामने पेश करनेका जो प्रयत्न किया है, वह असाधारण आचरण ही है । इस बातसे कोई इनकार नहीं कर सकता कि संघर्षके आरम्भिक दिनोंमें इनमें से कई निर्वासितोंपर अदा- लतोंमें मुकदमे चलाये गये थे और उनको केवल जेलकी सजा दी गई थी। पुलिस उनको ट्रान्सवालके पंजीयित निवासियोंके रूपमें जानती थी । फिर बादमें उनके विरुद्ध प्रशासकीय तौरपर कार्रवाई क्यों की गई और उनको निर्वासनका आदेश क्यों दिया गया ?

आगे किये जानेवाले निर्वासनोंके सम्बन्धमें पुलिसको हिदायत कर दी गई है कि जो एशियाई पंजीयित हो चुके हैं उनपर अधिनियमके उस खण्डके अन्तर्गत कार्रवाई न करनेकी पूरी सावधानी बरती जाये, जिसमें निर्वासनकी व्यवस्था है ।

इसपर श्री गांधी टीका करते हैं :
यह सावधानी बरतने के लिए अभी ही क्यों कहा जा रहा है ? क्या यह सही नहीं है कि अधिनियमकी जिस धारामें निर्वासनकी व्यवस्था है उसके अन्तर्गत कार्रवाई शुरू करनेकी जिम्मेदारी कानून विभागकी थी, पुलिसकी नहीं? मैंने अटर्नी जनरल द्वारा सरकारी वकीलोंके पास संघकी प्रस्थापनासे पहले भेजी गई एक टिप्पणी पढ़ी थी। उसमें कहा गया था कि सत्याग्रहियोंपर पहलेकी भाँति पंजीयन प्रमाणपत्र पेश न कर पानेसे सम्बन्धित धाराओंके अन्तर्गत नहीं बल्कि निर्वासनकी व्यवस्थावाली धाराओंके अन्तर्गत फर्द-जुर्म लगाया जाना चाहिए । इसीलिए मैं कहता हूँ कि अब यह कहना कि पुलिसको बहुत अधिक सावधानी बरतने इत्यादिकी हिदायत दे दी गई है, यदि बेईमानी नहीं, तो एक बड़ा ही भ्रामक कथन अवश्य है । मैं कुछ उदाहरण पेश करता हूँ । आर० एस० एन० मूडलेका मुकदमा संख्या ४६ लीजिए। कहा गया है कि उन्होंने अपनी शिनाख्तका कोई भी साधन जुटानेसे इनकार कर दिया था । मुझे मालूम है कि निर्वासनका आदेश देनेवाला मजिस्ट्रेट स्वयं जानता था कि मूडले लगभग बीस वर्ष से यहाँ निवास कर रहे हैं, इसलिए यह आदेश देते हुए वह कुछ हिचकिचाहट महसूस कर रहा था। उसने मूडलेको पहचान भी लिया था । उसे याद आ गया था कि वे