पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 10.pdf/४७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।



४२६
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तो बुरी है ही। इसके बन्द होते ही इस उपमहाद्वीपमें रहनेवाले भारतीयोंका प्रश्न अपने-आप हल हो जायेगा। इस दुःस्वप्नके दूर हो जानेके बाद यदि धीरजसे काम लिया जाये तो कालान्तरमें संघ राज्यके अन्तगर्त भारतीयोंकी स्थिति निरन्तर सुधरती जायेगी ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, ७-१-१९११

३५२. केनेडाके भारतीय

हमने अपने एक पिछले अंकमें कैनेडाके श्री सुन्दरसिंहकी जो चिट्ठी इंग्लैंडके एक अखबारसे उद्धृत की थी वही चिट्ठी अब उन्होंने हमें भेजी है। इसमें उन्होंने श्री हरनामसिंह और श्री रहीमके मामलोंका विवरण दिया है। श्री हरनामसिंहको निर्वासित करनेकी आज्ञा दे दी गई थी और श्री रहीमको यही आज्ञा दी जानेवाली थी। वहाँके हिन्दुस्तानी-एसोसिएशनने इसका विरोध किया था ।

फिर, हमारे संवाददाताने लिखा है कि भारतीय कैनेडासे संयुक्त राज्यमें भी नहीं जा सकते, जबकि जापानी और चीनी व्यापारियों और विद्यार्थियोंको इसकी छूट है ।

एक बार किसी यहूदी ब्रिटिश-प्रजासे हमारी बातचीत हो रही थी। बातचीतमें जब मैंने उससे यह कहा कि आप तो ब्रिटिश-प्रजा हैं तो उसने झुंझलाकर कहा, "नहीं, मैं तो ब्रिटिश कीड़ा-मकोड़ा हूँ ।" उसके इस तरह खीझकर कहनेका कारण था उसका भुक्तभोगी होना । अगर उपनिवेशोंमें रहनेवाले ब्रिटिश भारतीय भी अपने-आपको " ब्रिटिश कीड़े-मकोड़े " कहें, तो कोई आश्चर्यकी बात नहीं होगी । दयालु मनुष्य बराबर इस बातकी सावधानी रखेगा कि कहीं कोई कीड़ा-मकोड़ा कुचल न जाये । किन्तु बहुत-से गोरे हमारे सम्बन्धमें इतने सावधान भी नहीं रहते। इतना ही नहीं, वे हमें जान-बूझकर कुचलते हैं ।

ऐसा क्यों है ? यही शिकायत दक्षिण आफ्रिकामें है। ब्रिटिश आफ्रिकामें भी यही हाल है। मॉरिशसमें खलबली मची हुई है। हमने कुछ ही दिन पहले फिजीकी चिट्ठी' छापी थी। और अब कैनेडामें सिख भी सुखी नहीं हैं ।

क्या इस स्थितिके लिए हम गोरोंको ही दोष सकते। यदि हम कीड़े-मकोड़ोंकी तरह रहते हैं और वे यदि हम कीड़े-मकोड़ोंकी तरह न रहें तो फिर मुमकिन नहीं कि हमें कोई कुचले ।

यह बात आसानीसे समझ में आ सकती है कि हम जिस स्थितिमें हैं वह स्वयं हमारी ही पैदा की हुई है। गुलामोंपर भी यही नियम लागू होता है। सभी देशोंमें हमारे १. इंडियन ओपिनियन, २४-१२-१९०९ । पत्र लन्दनसे प्रकाशित इंडियामें भी छपा था । २. देखिए इंडियन ओपिनियन, १०-१२-१९१० । फिजीका कोई पत्र उसमें नहीं छपा है । हाँ, "मारिशसमें गिरमिटिया गुलामी” शीर्षक से एक पत्र अवश्य प्रकाशित हुआ है ।