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३५६. 'ट्रान्सवालकी टिप्पणी' से

बुधवार, १८ जनवरी, १९११

मुझे एक उड़ती हुई खबर मिली है; उसे नीचे दे रहा हूँ । इसे देते हुए मुझे बड़ी हिचक हो रही है, और मैं इसलिए पाठकोंको चेतावनी देता हूँ कि वे इसपर बहुत भरोसा न करें। ऐसा कहा जाता है कि जनरल स्मट्सने ट्रान्सवालके झगड़ेके बारेमें कोई समझौता करनेसे पहले यह शर्त रखी थी कि जिन गिरमिटियोंकी अवधि पूरी हो चुकी है, उनका [ स्वदेश ] लौट जाना अनिवार्य कर दिया जाये । अतः लगता है कि १९०७ के कानून २ और १९०८ के कानून ३६ को रद करने तथा प्रवासके मामलेमें कानूनी समानता स्थापित करनेके बदलेमें उनकी इच्छा ऐसी कुछ अन्य शर्ते थोपनेकी थी जो साम्राज्य सरकारको स्वीकार नहीं हुईं। कहा जाता है कि इसी कारण लगभग गतिरोधकी स्थिति बनी हुई है, और सम्भव है कि आखिरकार सामान्य प्रवासी विधेयक संसदके चालू सत्र में पेश न किया जाये। इस खबर में कोई सचाई हो या न हो, मैं इतना निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि संघर्ष चाहे कितना ही लम्बा क्यों न चले, हम उसके लिए पूरी तरह तैयार हैं।

भारतीय व्यापारियों द्वारा टॉल्स्टॉय फार्मके निवासियोंके लिए खाद्य सामग्री भेजनेका जो एक आन्दोलन चल रहा है, वह इन सम्भावनाओंको देखते हुए शुभ ही है। खाद्य- सामग्री के ऊपर होने वाला व्यय सत्याग्रह-कोषके लिए हमेशासे एक बहुत बड़ा बोझ रहा है ।

सर्वश्री हंसजी मोरार पटेल और दुलभ भूला भगतने फार्मको एक बोरा भीमड़ी चावल और आधा पीपा घी भेजा है ।

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २१-१-१९११

३५७. जोहानिसबर्ग की चिट्ठी

[ बुधवार, जनवरी १८, १९११]

भेंट

जस्टिनके श्री हंसजी मोरार पटेल तथा श्री दुलभ भूला भगतने भीमड़ी चावल और एक पीपा घी (४१ रतल) भेजा है। यदि बहुत-से भारतीय इस तरह चीजें भेज दिया करें तो सत्याग्रह-कोषमें काफी बचत हो सकती है।

शायद समझौता न हो !

मैं यह लिखनेपर विवश हो गया हूँ कि शायद समझौता न हो। मुझे कुछ खबरें मिली हैं, जिनसे मालूम होता है कि समझौतेकी जो बात चल रही थी वह बन्द १. देखिए अगला शीर्षक । २. देखिए पिछला शीर्षक ।