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सम्पूर्ण गांधी वाड्मय

विचारोंमें ऐसा परिवर्तन हुआ है। हेतु हर वक्त एक ही था • सत्यकी शोध । अब देखता हूँ कि इस तरह घर बदलनेमें आत्माके [अमरता विषयक ] गुणका अज्ञान है। इसका अर्थ यह नहीं कि चाहे जो हो जाये, घर कभी छोड़ना ही नहीं चाहिए । घर जल रहा हो तो उसे खाली करना ही चाहिए। उसमें साँप, बिच्छू इतने निकलने लगें कि उसमें रहना तत्काल मृत्युके मुँहमें जाना हो जाये तब उसे छोड़ना ही पड़ेगा; यद्यपि मैं यह भी नहीं कहता कि ऐसा करनेमें दोष है ही नहीं। जिसने आत्माको पूरी तरह पहचाना है, उसका अनुभव किया है, उसके सिरपर छप्पर केवल आकाशका है; वह जंगलमें रहता हुआ साँप और बिच्छूको भी मित्रके समान समझता है। हम, जो इस स्थिति तक नहीं पहुँचे हैं, सर्दी- गरमी आदिसे डरकर घरोंमें रहते हैं और इसलिए वहाँ भय उत्पन्न हो जानेपर उन्हें भी छोड़ देते हैं । फिर भी मनमें ऐसी आशा बनाये रखनी चाहिए कि हमें जल्दीसे-जल्दी आत्माके दर्शन होंगे। कमसे कम मैं तो इसी तरह सोचता हूँ ।

प्लेगके वक्त मोतीलाल ओधवजी घरकी देखरेख का काम अपने मुनीमपर छोड़कर [ राजकोटसे] चले गये। किसी आदमीके लिए ऐसा करना अनुचित है। अगर घरमें आग लगी होती तो मुनीम भी चला जाता। इस उदाहरणसे तुम दोनों बातोंका अन्तर समझ सकते हो। मैं प्लेग वगैराके डरको साधारण मानता हूँ। मुसलमान घर नहीं छोड़ते, पर भगवान्पर भरोसा रखकर पड़े रहते हैं। वे अगर प्लेगसे बचनेके जरूरी उपाय भी करें तो और अच्छी बात हो। जबतक हम डरकर इधर-उधर भागते फिरेंगे तबतक प्लेगके दूर होनेकी सम्भावना थोड़े ही है। प्लेग जहाँ फैलता है, वहाँ उसका कारण खोजने के बजाय भाग खड़े होना दीनताकी निशानी है। लेकिन इस उत्तरसे जब स्वयं मुझे ही सन्तोष नहीं हुआ है, तब तुम्हें कैसे हो सकता है ?

मेरे मनमें क्या कुछ है, यह तो तुम तभी समझ सकते हो जब तुम्हारा और मेरा मिलना हो और प्रश्न अनायास ही छिड़े । पूरी बात न समझा सकनेके दो कारण हैं। फिलहाल मैं दूसरे कुछ ऐसे कामोंमें लगा हूँ कि बहुत सोचकर लिखनेका मुझे अवकाश नहीं है। दूसरा कारण यह है कि मेरी अपनी कथनी और करनीमें अन्तर है। उसमें जैसी चाहता हूँ, वैसी एकरूपता हो तो ऐसे शब्द हाथ लगें कि तत्काल बात समझमें आ जाये ।

अगर आदरणीय खुशालभाई प्लेगके भयसे घर या गाँव छोड़नेको कहते हैं तो तुम्हारा छोड़ना यथार्थ है । जहाँ नीतियुक्त जीवनपर आँच नहीं आती वहाँ बुजुगोंकी आज्ञाका पालन करना हमारा धर्म है। उसमें कल्याण है । तुम्हें मौतका भय नहीं है, किन्तु माता-पिताको प्रसन्न रखनेके लिए प्लेगवाले गाँवको छोड़ने में बिलकुल दोष नहीं है। कुछ बातोंमें कुछ लोगोंके लेखे समय ऐसा कठिन है कि बुजुर्गोंकी आज्ञापालनके बारेमें भी विचार कर लेना उचित है। मुझे तो ऐसा लगता है कि माता और पिताका प्रेम ऐसा गूढ़ है कि जबतक कारण बहुत सबल न हों उन्हें अप्रसन्न नहीं करना चाहिए। किन्तु अन्य बुजुर्गों के बारेमें मन इतना नहीं स्वीकार करता। जहाँ नीतिके प्रश्नोंको लेकर हमारे मनमें संशय हो वहाँ अपेक्षाकृत कम दर्जेके बुजुगोंकी आज्ञाका

१. राजकोट के मोतीचन्द ओधवजी शराफ ।