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पंत्र : जे० जे० डोकको

क्या कहता है, इस बारेमें कुछ नहीं जानता । कानूनी समानता मंजूर की जाये और १९०७ का कानून रद कर दिया जाये तो ट्रान्सवालका सत्याग्रह समाप्त ही हो जाना चाहिए । यदि नेटाल और केपके आप अन्य भारतीय कृपया अपना कर्तव्य करें तो विधेयकसे खासा लाभ उठाया जा सकता है । और अधिक जानकारीके लिए पोलकसे मिलें ।

गांधी

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ५२४१ ) की फोटो - नकलसे ।

३९४. पत्र : जे० जे० डोकको

[ जोहानिसबर्ग
मार्च ७, १९११

प्रिय श्री डोक,

अपने वादेके अनुसार मैं उन शर्तोंको लिखित रूपमें भेज रहा हूँ जो मुझे अनाक्रामक प्रतिरोध समाप्त करनेके लिए आवश्यक प्रतीत होती हैं । आप जानते हैं, माँगें दो हैं - १९०७ का एशियाई कानून २ रद किया जाये; और प्रवासके मामले में शिक्षित एशियाइयोंकी कानूनी समानता स्वीकार की जाये, जिसका व्यावहारिक रूप यह हो कि ट्रान्सवालमें प्रतिवर्ष कमसे कम ६ उच्च शिक्षा प्राप्त भारतीयोंको प्रवेश करने दिया जाये ।

प्रथम माँग विधेयकमें स्वीकृत है, सो इस तरह कि अनुसूची १९०७ के कानून २ को लगभग रद करती है। दूसरी माँग भी, जान पड़ता है, स्वीकार कर ली गई है। परन्तु एक सुप्रसिद्ध वकीलकी राय है कि इस विधेयककी शिक्षा-सम्बन्धी धाराके अन्तर्गत शिक्षित एशियाइयोंका ट्रान्सवालमें प्रवेश पा सकना सम्भव नहीं होगा। उनकी सम्मतिमें और स्वयं मेरी सम्मतिमें भी १९०८ में पास हुए द्वितीय पंजीयन कानूनका बना रहना इसके आड़ आता है। इसलिए यह आवश्यक है कि विधेयकको कुछ इस तरह संशोधित किया जाये कि जो शिक्षित एशियाई शैक्षणिक कसौटीके अन्तर्गत प्रवेश करें, वे पंजीयन कानूनसे बरी रहें ।

लगता है, इस विधेयक द्वारा एक नई निर्योग्यता थोपनेका मन्शा भी है । जो निषिद्ध नहीं हैं, ऐसे प्रवासियोंकी पत्नियों और नाबालिग बच्चोंको संरक्षण नहीं दिया गया है, जबकि अबतक उन्हें संरक्षण प्राप्त था।' मैं तो यही मानना चाहूँगा कि यह बात भूलसे रह गई है । १. आर० ग्रेगरोवस्की । २ और ३. देखिए “पत्र : ई० एफ० सी० लेनको”, पृष्ठ ४५७-५८ ।