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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तैयार न थी। उसकी भावनाएँ उस समय तीव्र थीं। उस समय बंगालके बहुत से नेता अपना सर्वस्व न्यौछावर करनेको तैयार थे। अपनी शक्तिका उन्हें भान था, इसलिए एकदम आग भड़क उठी। अब उसे बुझाना सम्भव नहीं है, बुझानेकी जरूरत भी नहीं । विभाजन मिटेगा; बंगाल फिर एक होगा; परन्तु अंग्रेजी जहाजमें जो दरार पड़ गई है वह तो बनी ही रहेगी। वह दिन-ब-दिन चौड़ी होगी। जागा हुआ भारत फिरसे सो जाये, यह सम्भव नहीं। विभाजन रद करनेकी माँग स्वराज्यकी माँगके बराबर है। बंगालके नेता यह बात भली-भाँति समझते हैं । अंग्रेज सत्ताधारी भी इसे समझते हैं; इसलिए विभाजन रद नहीं हुआ । जैसे-जैसे दिन बीतते हैं वैसे-वैसे जनता संगठित हो रही है। जनता एक दिनमें संगठित नहीं हो जाती ; इसमें वर्षों लगते हैं।

पाठक : विभाजनके आपने क्या परिणाम देखे ?

सम्पादक : आजतक हम मानते आये हैं कि सम्राट्के पास प्रार्थनापत्र भेजे जायें और प्रार्थनापत्र भेजनेसे न्याय न मिले तो तकलीफें भोग ली जायें। फिर भी प्रार्थना- पत्र तो भेजते ही रहें। विभाजन होनेके बाद लोगोंने देखा कि प्रार्थनापत्रके पीछे बल चाहिए, लोगोंमें कष्ट उठानेकी शक्ति चाहिए। यह नई भावना ही विभाजनका मुख्य परिणाम मानी जायेगी। यह भावना अखबारोंके लेखोंमें झलकी । लेख कड़े होने लगे। जो बातें लोग डरते-डरते या लुके-छिपे करते थे, वे खुल्लमखुल्ला कही और लिखी जाने लगीं। स्वदेशीका आन्दोलन चला। पहले अंग्रेजोंको देखते ही छोटे-बड़े सब भाग जाते थे। अब उनका डर चला गया। लोगोंने मारे-पीटे जानेकी भी परवाह नहीं की। जेल जानेमें उन्होंने बुराई नहीं मानी और इस समय भारतके पुत्ररत्न निर्वासित होकर [विदेशोंमें ] विराजमान हैं। यह चीज प्रार्थनापत्रोंसे भिन्न प्रकारकी है। इस तरह हम देखते हैं कि लोगोंमें जागृति आ गई है। बंगालकी हवा उत्तरमें पंजाब तक और दक्षिण में कन्याकुमारी अन्तरीप तक पहुँच गई है।

पाठक : इसके सिवा अन्य कोई जानने योग्य परिणाम आपको सूझता है ? सम्पादक: बंगालके विभाजनसे अंग्रेजी जहाजमें तो दरार पड़ी ही है, हमारे बीच भी पड़ी है। बड़ी घटनाओंके परिणाम ऐसे ही बड़े होते हैं। हमारे नेताओंमें दो दल बन गये हैं। एक 'मॉडरेट' और दूसरा 'एक्स्ट्रीमिस्ट'। उन्हें हम 'धीमा' और 'उतावला' कह सकते हैं। कुछ लोग 'मॉडरेट' दलको नरम दल और 'एक्स्ट्रीमिस्ट' दलको गरम दल भी कहते हैं। सब लोग अपने-अपने विचारोंके अनुसार इन दो शब्दोंका अर्थ करते हैं। इतना तो सही है कि ये जो दल बने हैं उनके बीच विद्वेष भी पैदा हुआ है। दोनों एक-दूसरेपर अविश्वास करते हैं और एक दूसरेपर ताने कसते हैं। सूरतकी कांग्रेस समय इनमें लगभग मार-पीट ही हो गई। मुझे तो लगता है कि इन दो दलोंका बनना देशके लिए शुभचिह्न नहीं है। परन्तु मेरा खयाल है। कि ऐसे दल अरसे तक नहीं टिकते। ये कितने दिनों बने रहेंगे, यह नेताओंके ऊपर निर्भर है।

१. लोकमान्य तिलक जो इस समय मांडलेकी जेलमें थे ।

२. सन् १९०७ ।


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