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पत्र: एच० एस० एल० पोलकको

मामलेमें श्रीनरसे ठोस सहायता मिलेगी। केपके समाचारपत्रोंसे मैं बड़ी आशाएँ रखता हूँ । केपके भारतीयोंकी ओरसे उन्हें जोरदार लड़ाई लड़नी चाहिए। 'केप आर्गस' के अग्रलेखसे ऐसा लगता है कि विधेयकमें यथेष्ट परिवर्तनों द्वारा शासनके विवेकाधिकारोंको कम कर दिया जायेगा। ऐसा होना भी चाहिए। मैं आपके पास १० पौंडका चेक भेज रहा हूँ, कमसे कम सिलबरबार द्वारा इसे भुनवानेमें आपको कोई कठिनाई नहीं होगी। मैं लॉटनकी सम्मति साथ भेज रहा हूँ । मेरे निष्कर्ष आपके पास हैं ही।

हृदयसे आपका,

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ५२८२) की फोटो - नकलसे ।

४२५. पत्र : एच० एस० एल० पोलकको

[ जोहानिसबर्ग ]
मार्च १३, १९११

प्रिय श्री पोलक,

आप अपनी तरफसे रिचको पैसे भेजें या न भेजें, मैंने यहाँसे १० पौंड भेज दिये हैं। रिचसे प्राप्त कतरनें इस खयालसे साथमें भेज रहा हूँ कि शायद आपने उन्हें, या उनमें से कुछको न देखा हो। मैं उपनिवेशमें जन्मे भारतीयोंका रुख समझ सकता हूँ। इसका कारण मुख्यतः उनका अज्ञान है। और इस अज्ञानका कारण है उनकी उदासीनता और आलस्य । उन्होंने न तो संघर्षपर ध्यान दिया है और न वे भारतीयोंसे सम्बन्धित कानूनोंका अध्ययन ही करते हैं। 'आफ्रिकन क्रॉनिकल' के अग्र- लेखसे, जिसे मैंने आपकी चेतावनीके बाद पढ़ा, परले सिरेकी मूढ़ता परिलक्षित होती है । कोई भी यह बात देख सकता है। लेख मूर्खतापूर्ण ही नहीं, शरारतसे भरा हुआ भी है। इसके लेखकने कानूनको पढ़नेका भी कष्ट नहीं उठाया, और उसने ऐसे शब्दोंको इस कानूनके एक खण्डके शब्द कहकर उद्धृत किया है जो सचमुच उसमें हैं ही नहीं । कुछ भी हो, हम भरसक उनके दिमागसे गलतफहमियाँ दूर करनेके प्रयत्नके सिवा कर ही क्या सकते हैं ? मेरी रायमें आप एक बातका वादा निःशंक होकर कर सकते हैं और शायद वह बात हमें करनी भी होगी; वह यह है कि जैसे ही मामलेका निपटारा हो, और विधेयक संविधि-पुस्तकपर आ जाये, हम तुरन्त संघके प्रत्येक भागमें अपना अधिकारनामा पेश करें और उसके लिए काम करना शुरू कर दें। हाँ, मुझे उस कामसे बरी ही रखा जाये। लेकिन इस सम्बन्धमें बादमें लिखूंगा ।

१. उपलब्ध नहीं है । २. देखिए “पत्र : आर० ग्रेगरोवस्कीको ", पृष्ठ ४४४-४६ । ३. गांधीजीने अपनेको बरी रखनेकी बात शायद इसीलिए लिखी थी कि विधेयक पास होकर कानून बनते ही वे दक्षिण आफ्रिका छोड़कर भारतमें बसने की बात सोच रहे थे ।