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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

श्री उमरको स्मरण दिलाना न भूलिए। यह आवश्यक है कि पट्टा जल्दीसे- जल्दी मिल जाये । विधेयकके सम्बन्धमें कोई अग्रलेख मैंने अभी तक नहीं लिखा है । जबतक मैं द्वितीय वाचनके विवरणको न देख लूँ तबतक कुछ लिखना नहीं चाहता ।

हृदयसे आपका,

टाइप की हुई दफ्तरी अंग्रेजी प्रति (एस० एन० ५२८३) की फोटो - नकलसे ।

४२६. पत्र : एल० डब्ल्यू० रिचको

[ जोहानिसबर्ग ]
मार्च १४, १९११

प्रिय रिच,

लगता है कि बहस कोई बुरी नहीं रही। आपका अलेक्जैंडर को सिखाना- पढ़ाना बड़ा कारगर सिद्ध हुआ। हम आशा कर सकते हैं कि अब आवश्यक संशोधन हो जायेंगे। मैं सोचता था, आप बहसके बारेमें अपने विचार मुझे तार द्वारा सूचित करेंगे । यहाँ जो विवरण प्राप्त हुआ है, वह अधूरा ही है । मुझे आशा है कि प्रार्थना- पत्र* कल पेश कर दिये गये होंगे।" क्या मैंने आपको सिलबरबारसे टीमका प्रमाण- पत्र और वे अन्य सभी प्रमाणपत्र ले लेनेके लिए लिखा था जो उनके पास निर्वासितोंके मामलोंके बारेमें भेजे गये थे ? यदि न लिखा हो, तो कृपया अब ले लीजिए। मैं आपके सम्बन्धमें हुआ पत्र-व्यवहार और साथ ही आपके बारेमें एक अग्रलेख भी प्रकाशित कर रहा हूँ ।" यदि आप सोचें कि यह उचित नहीं है, तो कृपया तार सीधे फीनिक्स भेज दें । यह पत्र आपको शुक्रवारकी सुबह या उससे भी पहले ही मिल जायेगा । और यदि आपका तार १० बजेसे पहले फीनिक्स भेज दिया गया तो वह सामग्री रोकी जा सकेगी। परन्तु मेरा खयाल है कि इसे छपना चाहिए। यदि संशोधन

१. देखिए “पत्र : एच० एस० एल० पोलकको ", पृष्ठ ४७८-७९ । २. विधेयकके द्वितीय वाचनके समय, जो १३-३-१९११ को आरम्भ हुआ था । ३. विधेयकके द्वितीय वाचनके समय जनरल स्मट्सके भाषणके बाद श्री अलेक्ज़ेंडरने एशियाश्योंकी मांगों का जोरदार शब्दों में समर्थन किया । गांधीजीने स्वयं श्री अलेक्ज़ेंडरको एक तार भेजा था । देखिए "तार : संसद सदस्योंको ", पृष्ठ ४८७ । ४. देखिए “ नेटालका प्रार्थनापत्र : संघ-विधानसभाको ", पृष्ठ ४७५-७६. तथा “ ट्रान्सवालका प्रार्थनापत्र : संघ- विधानसभाको ", पृष्ठ ४८१-८२ । ५. मार्च १८, १९११ के इंडियन ओपिनियनके गुजराती स्तम्भमें प्रकाशित रायटर के तारके अनुसार केप, नेटाल और ट्रान्सवाल्के भारतीयों के प्रार्थनापत्र १५-३-१९११ को संसदके समक्ष प्रस्तुत किये गये थे । ६. गांधीजी और गृह-मन्त्रीके बीच हुआ पत्र-व्यवहार; देखिए इंडियन ओपिनियन, १८-३-१९११ । ७. देखिए " लिटिल माइंडेडनेस " (" ओछापन "), इंडियन ओपिनियन, १८-३-१९११