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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

तरीकोंके कारण नहीं है बल्कि उसके बावजूद है; और दरअसल तो इसका कारण आपकी नीयत है। लेकिन जिनके पास आपके जैसी एकान्त-निष्ठा नहीं है उनके लिए खतरा है । भगवद्गीताका वचन है जो व्यक्ति कर्मेन्द्रियोंसे तो संयम बरतता है परन्तु मन ही मन विषयोंका चिन्तन करता रहता है वह — विमूढात्मा - मिथ्याचारी – है।' मेरी राय में तो [ ऐसेमें] कर्मेन्द्रियोंका प्रयोग ही अधिक उपयुक्त हैं।

परन्तु 'सत्याग्रह आन्दोलनको समग्र रूपमें देखते हुए यदि यह मान लिया जाये कि वास्तव में आपका जो लक्ष्य है वह केवल एक राजनीतिक वस्तु नहीं बल्कि जीवनकी रूढ़ियों और मध्य-मार्गके स्थान- पर सत्याग्रह, प्रेम और सच्ची आन्तरिक स्वतन्त्रताको प्रतिष्ठित करना है । तब यह संगति-पूर्ण प्रतीत नहीं होता है कि आप लोग अपनेको शहीद कहलवायें या कारावासके कष्टोंका दुखड़ा रोयें; (मेरा खयाल है आपने स्वयं यह कभी नहीं किया है) या आपको जो अन्याय या दुर्व्यवहार भासित होता हो उससे राजनैतिक लाभ उठायें; या आप इस मामलेको अखबारोंमें विज्ञापित होने दिया करें; अथवा इंग्लैंड और भारत शिष्ट- मण्डल भेजें और सामान्यतया राजनीतिक आन्दोलन चलाते रहें । यदि वास्तवमें यह विषय धर्मसे सम्बन्धित है, तो मेरे विचारसे सबसे खरी वीरता अत्यधिक क्रियाशील अनाक्रामक प्रतिरोध' में नहीं है; बल्कि वह व्यक्तिकी हैसियतसे अत्याचार सहन करते रहने और उफ तक न करनेमें है ।

निःसन्देह, यदि लक्ष्य राजनीतिक हो तब ये सब बातें चातुर्य के अन्तर्गत आ जाती हैं और वे परिस्थितियों के अनुसार, बहुत ही उपयुक्त एवं उपयोगी शस्त्रका काम दे सकती है । व्यक्तिगत रूपसे मैं राजनीतिक मामलोंमें वीरताके प्रदर्शन तथा अनेक सत्याग्रहियोंकी खरी वीरताकी सराहना करता हूँ तो भी में यह अवश्य कहूँगा कि यह वीरता सैनिकों, उपद्रवकारियों और क्रान्तिकारियोंके द्वारा व्यक्त सक्रिय वीरता से किसी भी प्रकार बढ़कर नहीं है । अन्य राजनीतिक आन्दोलनोंमें -- उदाहरणार्थं ऐन्टी एशियाटिक मूवमेंट' में - बहुत-से बिल्कुल मामूली लोगोंने कष्ट सहनमें जो कुछ कर दिखाया है उनमें और आपके आन्दोलनमें फर्क नहीं है; और वे लोग जिस सहानुभूतिके पात्र हैं उससे अधिक सहानुभूतिके पात्र आपके सत्याग्रही नहीं हैं। सच तो यह है कि एशियाई आव्रजनके सैनिकों और उसके विरोधियोंको जेल जाने की कोई जरूरत नहीं थी, परन्तु दोनोंने ही अपने-अपने क्षेत्रोंमें और अपने-अपने कर्तव्यके अनुसार उस उद्देश्य की पूर्तिके लिए, जो यद्यपि यथार्थमें 'धार्मिक' नहीं था तथापि जिसे वे अत्यन्त पवित्र मानते थे, अपनी सबसे प्यारी वस्तुको जोखिममें डाल दिया और एकाध बार तो उससे हाथ भी धो बैठे। हर हालत में सैनिकोंका शारीरिक कष्ट सहन सत्याग्रहियों के कष्ट सहनसे कहीं बढ़ा-चढ़ा होता है; तो भी यदि सैनिक गोलियों के मर्मभेदी होनेकी या जंगके दिक्कत तलब होनेकी शिकायत करें और रोना रोयें कि दुश्मन हमें मारे डालता है तो वह नितान्त हास्यास्पद माना जायेगा । कुछ परिस्थितियों में आपका अपने प्रति किये गये अन्यायका ढिढोरा पीटना चातुर्यपूर्ण हो सकता है; परन्तु ऐसा करना चाहिए या नहीं यह आपके सोचनेकी बात है।

अन्त में, मैं स्वयं 'अनाक्रामक प्रतिरोध ' तथा उसके उचित स्थान और उचित उपयोगके प्रश्नको देता हूं । मेरी समझमें यदि कोई मुमुक्षु ऐसा माने कि आत्माके पूर्ण विकासके विचारसे अहम्का नाश करके समस्त लौकिकता के अतिक्रमणका समय आ पहुँचा है तो उसके लिए अनाक्रामक प्रतिरोध उचित मार्ग माना जा सकता है । मैं इसके सम्बन्धमें निश्चयात्मक रूपसे कुछ भी कहनेकी धृष्टता न करूँगा; क्योंकि मैं इस बारेमें दखल नहीं रखता । परन्तु इस प्रकारके अनाक्रामक प्रतिरोधकी प्रकृति ही कुछ ऐसी होती है कि उसका कोई राजनीतिक लक्ष्य नहीं हो सकता; क्योंकि इसका ध्येय लौकिक बन्धनोंसे अछूते रहकर और उनसे ऊपर उठकर पूरी तरह मुक्त होनेकी योग्यता प्राप्त करना है। साधारण नागरिककी भाँति जीवन व्यतीत करनेवाले सामान्य व्यक्ति द्वारा व्यावहारिक राजनीतिक सिद्धान्तके रूपमें अंगीकार किये जानेकी दृष्टिसे सत्याग्रह मुझे तो बहुत ही अनिष्ट- कारक और जनसाधारणके कल्याणके लिए संघातक प्रतीत होता है । वह तो निरी अराजकता है और मैंने हमेशा इस सिद्धान्तके प्रणेता टॉल्स्टॉयको व्यक्तिगत रूपसे सन्त तो माना है, परन्तु जब वे अपने सिद्धान्तोंका प्रतिपादन राजनीतिक प्रचार के लिए करने लगते हैं और इनका अन्धाधुन्ध अनुसरण करनेकी