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परिशिष्ट

सिफारिश करते हैं तब मैं उन्हें मानव समाजका भयंकर शत्रु मानता हूँ । मुझे इस विषय में किंचित् भी सन्देह नहीं है कि साधारण श्रेणीके मनुष्योंके लिए सरकार, पुलिस और भौतिक बल अत्यन्त आवश्यक हैं और वे अपने विकासक्रममें उतने ही स्वाभाविक एवं नैतिक हैं जितना खाना-पीना और सन्तान उत्पन्न करना; इनकी जगह इसी श्रेणीकी कोई बेहतर चीज ला रखनेकी तैयारीके बिना इनकी जड़ें खोखली करने और प्रगतिकी समस्त सम्भावनाओंको नष्ट कर देनेके अतिरिक्त और कुछ नहीं है । इसलिए मेरी समझ में कोरी अवज्ञाकी अपेक्षा – अवज्ञा तो अधिकसे-अधिक एक शासनके स्थानपर दूसरे शासन - इस प्रकारका प्रचार कहीं अधिक हानिकर है – की स्थापना ही चाहती है । जो कुछ किसी साधुके लिए ठीक है वही दूसरोंके लिए भी है, ऐसा मानना घातक भूल है । 'सीज़रकी वस्तुएँ सीजरको और ईश्वरकी वस्तुएँ ईश्वरको ।' समस्त मानव-समाजके साधु-वृत्ति धारण कर लेनेपर ही शासन अनावश्यक होता है, इससे पूर्व नहीं। इस बीच सभ्यताकी त्रुटियोंको सुधारना है; उसको समाप्त नहीं करना है । यह मान भी लिया जाये कि भारतके बारेमें आपका कथन ठीक है और श्रीमती बेसेंटका गलत - और यदि वास्तव में भारतको ब्रिटिश शासकों तथा देशी नरेशोंसे हीन कर दिया जाये और यदि प्रत्येक व्यक्ति जो करने लगे वही कानून सम्मत माना जाये, तो कमसे कम मेरी निगाह में यह बात बिलकुल स्पष्ट है कि पाश्चात्य राष्ट्रों तथा दक्षिण आफ्रिकाके लिए इस प्रकारके विचार घातक हैं । यदि यह सच है तो इससे यही बात प्रमाणित होगी कि भारतीय और यूरोपीय विचारधाराओंमें कितनी मौलिक भिन्नता है। और यह कि दक्षिण आफ्रिकाका भारतीयोंसे पीछा छुड़ानेके लिए उस देशके उठाये गये सख्त से सख्त कदम लगभग न्यायोचित हैं। क्या आपके ध्यानमें यह बात नहीं आई कि यदि भारतके बारेमें आपके विचार सही हैं तो आपने अपनी पुस्तकके बीसवें परिच्छेद में जो यह निष्कर्ष निकाला है कि “ यूरोपीय सभ्यताको प्रोत्साहित करनेके पापके पर्याप्त प्रायश्चित स्वरूप जीवन-भरके लिए काले पानी भेज देना भी कम है; " तो क्या भारतीयोंके ट्रान्सवालसे डेलागोआ बे या भारत निर्वासित कर दिये जानेकी बातपर यह निष्कर्षं अधिक लागू नहीं होता । मैंने बहुत लम्बा पत्र लिख डाला है, इसी कारण कि आपने अपनी पुस्तिका में अति रोचक और बड़ी महत्त्वपूर्ण बातोंकी चर्चा की और मुझसे उनकी आलोचना माँगी । मैं आपको विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मेरे हृदयमें आपके और आप सरीखे अन्य व्यक्तियों के प्रति सच्चा और प्रेमयुक्त आदरभाव है । हम आपकी प्रशंसा करते है, परन्तु सार्वजनिक कर्तव्यके नाते मैं आपके उद्देश्य और आपके तरीकों का विरोध पूरी ताकत से करता रहूँगा ।

आपका हृदयसे,
डब्ल्यू. वाइवर्ग

पुनश्च :

चूँकि आपने एक बार मुझे सत्याग्रहपर 'इंडियन ओपिनियन' के लिए लेख लिखनेको कहा था - परन्तु मैं उस समय लिखने में असमर्थ रहा । मेरा खयाल है कि आप शायद इस पत्रको प्रकाशित करना पसन्द करें। यदि ऐसा हो तो अवश्य करें। डबल्यू. डबल्यू०

[ अंग्रेजीसे ]
इंडियन ओपिनियन, २१-५-१९१०