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परिशिष्ट

(२)

टॉल्स्टॉयका गांधीजीको पत्र

कोटशेटी
रूस
सितम्बर ७, १९१०

आपकी पत्रिका 'इंडियन ओपिनियन' आपकी पत्रिका--'इंडियन ओपिनियन'-- मुझे मिल गई है । उसमें सत्याग्रहके सम्बन्धमें जो कुछ लिखा गया है, उस सबको पढ़कर मैं प्रसन्न हुआ हूँ । उन लेखोंको पढ़कर मेरे मनमें जो विचार उठे सो मैं आपपर प्रकट करना चाहता हूँ ।

ज्यों-ज्यों आयु बढ़ रही है. विशेषकर इन दिनों जब मैं मृत्युके निकट पहुँच रहा हूँ, दूसरोंके सामने अपनी वे भावनाएँ व्यक्त करनेकी मेरी प्रवृत्ति अधिकाधिक प्रबल होती जा रही है जो मेरे अन्तरको व्याकुल कर रही हैं और जो मेरी राय में, अत्यधिक महत्त्वकी हैं। मतलब यह कि जिसे बुराईका प्रतिकार न करनेका सिद्धान्त कहा जाता हैं वह वास्तवमें प्रेमके अनुशासनका ही दूसरा नाम है जो मिथ्या व्याख्याकी विकृति से अछूता है । दूसरोंके साथ तादात्म्य स्थापित करके और एकात्म होनेकी अभिलाषा ही प्रेम है। ऐसी अभिलाषा सदैव सत्कर्मोकी प्रेरणा जगाती है । प्रेम ही मानव जीवनका सर्वोपरि और अनुपम धर्मं है और प्रत्येक व्यक्ति इसका अपनी अन्तरात्मामें अनुभव करता है । उसकी सर्वाधिक स्पष्ट अभिव्यक्ति हमें शिशुओं में मिलती हैं। मनुष्य भी उसे महसूस करते हैं लेकिन तभीतक जबतक कि संसारके मिथ्या मतवाद उसकी आँखोंपर परदा नहीं डाल देते ।

भारतीय, चीनी, हिब्रू, यूनानी, रोमन - संसारके सभी दार्शनिक मतोंने इसी प्रेम-धर्मको प्रचारित किया है । मैं समझता हूँ कि ईसाने इसे सर्वाधिक स्पष्ट रूपमें व्यक्त किया । उन्होंने कहा कि इस प्रेम धर्म में शास्त्रोंका विधि-निषेध और पैगम्बरोंके इलहाम दोनों ही का समावेश है । लेकिन ईसा इतना ही कह कर नहीं रह गये । वे इससे भी आगे गये । उन्होंने इस धर्ममें विकृति पैदा होनेकी सम्भावनाको भी देखा । उन्होंने स्पष्ट कहा कि सांसारिक सुखोंके पीछे दौड़नेवाले व्यक्तियों के हाथों इस धर्मके विकृत हो जानेका खतरा है । सम्भव है कि [ इस धर्मको माननेवाले ] लोग अपने-अपने स्वार्थोंकी रक्षाके लिए हिंसाका प्रयोग करें, अर्थात् ईसाके कथनानुसार 'ईटका जवाब ईटसे' दिया जाये और जो चीजें छीनी गई हों उनको जोर- जबर्दस्ती से वापस लिया जाये और इसी तरहके अन्य कार्य भी हों। ईसा यह भी जानते थे कि प्रेमके साथ हिंसाके प्रयोगका मेल नहीं बैठता; और सभी समझदार इनसानों को यह बात समझ लेनी चाहिए । प्रेम तो जीवनका मूलभूत तत्व है । ईसा जानते थे कि यदि हिंसाको कहीं किसी एक भी क्षेत्र में स्वीकार कर लिया जाये तो उससे प्रेमधर्मं व्यर्थ हो जाता है, बाहर से इतनी आकर्षक दिखनेवाली समूची ईसाई सभ्यता जाने-अनजाने इसी भ्रान्ति और इसी विचित्र तथा घोर अन्तर्विरोधपर बढ़ी है ।

वास्तवमें प्रेमके साथ-साथ प्रतिकारकी भावनाकी गुंजाइश स्वीकार करते ही प्रेमका अस्तित्व मिट जाता है । तब वह जीवनके धर्म के रूपमें खड़ा नहीं रह सकता; और उसके विलीन होते ही हिंसा, अर्थात् ' जिसकी लाठी उसकी भेंस' के सिद्धान्तके अतिरिक्त अन्य कोई सिद्धान्त वच नहीं रहता। गत उन्नीस शताब्दियोंसे

१. रूसी भाषा में लिखे गये मूल पत्रका जोहानिसबर्गकी पॉलिन पैडलशुक द्वारा किया गया अंग्रेजी अनुवाद "काउन्ट टॉल्स्टॉय और सत्याग्रहः ट्रान्सवाल भारतीयोंके नाम एक सन्देश " शीर्षक से इंडियन ओपिनियन के २६-११-१९१० के अंकमें प्रकाशित हुआ था । 'ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस' द्वारा प्रकाशित टॉल्स्टॉयके संस्मरण और निबन्धमें भी इसका एल्मर मोड द्वारा किया हुआ एक अनुवाद मिलता है । २. टॉल्स्टॉयकी सबसे बड़ी पुत्रीकी हवेली ।