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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

ईसाई समाज इसी तरह चलता आया है। यह एक तथ्य है कि इस पूरे कालमें समाजके संगठनके लिए लोग केवल हिंसाके साधनों का प्रयोग करते रहे है। ईसाइयों और अन्य जातियोंके आदर्शोंमें केवल यही अन्तर है कि ईसाई विधानमें प्रेमके इस धर्मको जितनी स्पष्ट और निश्चित अभिव्यक्ति मिली है उतनी अन्य किसी धार्मिक सिद्धान्तमें कभी नहीं मिली। ईसाइयोंने बड़ी निष्ठाके साथ प्रेमके धर्मको स्वीकार किया था, हालाँकि हिंसा के प्रयोगकी गुंजाइश भी इसके साथ-साथ मान ली गई थी; और हिंसाकी गुंजाइशकी यह स्वीकृति ही जन-जीवनकी इमारतकी नींव बन गई । फलतः ईसाई राष्ट्रोंकी कथनी और क्षणिक जीवनके आधारभूत आचारोंमें जमीन आसमानका अन्तर है। एक ओर प्रेमको जीवनके सिद्धान्तके रूपमें प्रतिष्ठित करना -- - और दूसरी ओर सरकारों, न्यायाधिकरणों, सेनाओं इत्यादि जैसे उन विभिन्न क्षेत्रों - जिनको मान्यता दी जाती है और जिनकी सराहना की जाती है, में हिंसाको अनिवार्य मानना ये दोनों बातें परस्पर सर्वथा विरोधी हैं । यह विरोध ईसाई संसारके आन्तरिक विकासके साथ-साथ बढ़ता गया और इधर हालमें तो वह बड़ी दारुण अवस्थामें पहुँच गया है ।

आजकल समस्या हमारे सामने प्रत्यक्षतः इस रूपमें आ खड़ी हुई है : या तो यह स्वीकार किया जाये कि हमें कोई भी धार्मिक या नैतिक अनुशासन मान्य नहीं और हम समाजके संगठनमें केवल एक नियम मानते हैं - ' जिसकी लाठी उसकी भैंस ।' अथवा यह कि हमसे जबरदस्ती वसूल किये जानेवाले कर, न्याय तथा पुलिसके समूचे संगठन और सबसे अधिक तो सेनाओं को भी हटा देना चाहिए ।

इस बार बसन्त में मास्कोके एक माध्यमिक बालिका विद्यालय में धर्मके विषयकी परीक्षाके दौरान धार्मिक प्रश्नोत्तरोंके अध्यापक और पादरी, दोनोंने बालिकाओंसे [ मूसाके ] दस धर्मादेशों और विशेषकर छठवे धर्मादेश - ' हत्या मत करो' के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे थे । यदि किसी बालिकाका उत्तर बढ़िया होता, तो पादरी सामान्यतया थोड़ा रुक कर अगला प्रश्न पूछता था : “ क्या धर्मादेश सभी स्थितियों में हत्याका निषेध करता है ? " अपने अध्यापकोंके विकृत विचारोंसे प्रभावित वे बेचारी बालिकाएँ उत्तर में यही कह सकती थीं : "नहीं, सभी स्थितियोंमें नहीं; युद्धके दौरान और अपराधियोंको प्राण-दण्ड देनेके लिए हत्याको अनुमति है । पर उन्हीं अभागी बालिकाओं में एक ऐसी भी निकली कि उससे जब पूछा गया : " क्या हत्या हमेशा ही अपराध होती है ?" तो उसका हृदय आन्दोलित हो उठा; वह कुछ लजाई और उसने निश्चयके साथ उत्तर दिया : "जी हाँ हमेशा ही ।" (यहाँ मैं जिसका वर्णन कर रहा हूँ वह काल्पनिक नहीं एक वास्तविक घटना है जो मुझे एक चश्मदीद गवाहने बतलाई थी ।) पादरी जैसे औपचारिक प्रश्न पूछनेका आदी था, उन सभीके उत्तर में उसने दृढ विश्वासके साथ कहा : 'ओल्ड टेस्टामेन्ट' (प्राचीन बाइबिल) में सभी स्थितियोंमें हत्याका निषेध किया गया है; ईसाने ही इसका निषेध किया है; ईसाने तो हत्या ही नहीं अपने पड़ोसीके प्रति हर प्रकारकी दुष्टताका भी निषेध किया है। अपने सारे वाक-चातुर्य और टीमटामके वावजूद पादरीको मुँहकी खानी पड़ी और बालिका विजयी हुई ।

हमारे समाचारपत्र और पत्रिकाओंमें बड़ी-बड़ी बातोंकी चर्चा रहती है। उनमें विमानकी प्रगति और ऐसी ही अन्य खोजों, पेचीदगी-भरे राजनयिक सम्बन्धों, विभिन्न क्लबों और देशोंकी मैत्रियों और तथाकथित कला-कृतियों इत्यादिकी चर्चाएँ उनमें भरी रहती हैं, किन्तु उस बालिका द्वारा दोहराये सत्यको वे महत्त्व नहीं देते, उसके बारेमें चुप्पी साध लेते हैं। लेकिन ऐसे मामलोंमें चुप्पी साधना व्यर्थ है, क्योंकि, उस बालिकाकी भाँति, प्रत्येक ईसाई कुछ कम या ज्यादा अस्पष्टताके साथ उसी चीजको महसूस कर रहा है। समाजवाद, साम्यवाद, अराजकतावाद, मुक्तिसेना (सॉल्वेशन आर्मी), अपराधकी निरन्तर बढ़ती हुई प्रवृत्तियों, बेरोजगारी और धनीवर्गकी नाहक और बेहिसाब ऐशो इशरत, गरीब जनताके भयंकर कष्ट, आत्महत्याओंकी तेजीसे बढ़ती हुई संख्या – ये सब उसी अन्तर्विरोधके लक्षण हैं जो समाजमें अनिवार्य रूपसे मौजूद है और जिसका कोई समाधान नहीं मिल पा रहा है। उसे सुलझानेका केवल एक मार्ग है – प्रेम-धर्मको स्वीकार करना और हर प्रकारकी हिंसाका त्याग करना । यही है कि ययपि ट्रान्सवाल हमें हमारी दुनिया से बहुत दूर