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हिंदी स्वराज्य

नहीं । परन्तु मनमें एक प्रश्न उठ रहा है कि सभ्यता यदि असभ्यता है, रोग है, तो ऐसी सभ्यतासे ग्रस्त अंग्रेज भारतको कैसे ले सके और कैसे उसमें जमे हुए हैं ?

सम्पादक : आपके इस प्रश्नका उत्तर देना अब कुछ आसान हो गया है और अब थोड़ी ही देरमें हम स्वराज्यपर भी विचार कर सकेंगे। मैं भूला नहीं हूँ कि आपके स्वराज्य सम्बन्धी प्रश्नका उत्तर मुझे देना है । परन्तु अभी आपके आखिरी सवालको ही लें। भारतको अंग्रेजोंने लिया हो सो बात नहीं है, हमने उन्हें अपना देश दिया है । वे यहाँ अपने बलसे नहीं टिके हैं बल्कि हमने उन्हें टिका रखा है । कैसे, सो देखें । आपको याद दिलाता हूँ कि दरअसल वे हमारे देशमें व्यापारके लिए आये थे। जरा कम्पनी बहादुरकी याद कीजिए। उसे बहादुर किसने बनाया? उन बेचारोंको तो राज्य करनेका खयाल तक नहीं था । कम्पनीके लोगोंकी मदद किसने की ? कौन उनकी चाँदी देखकर लुभा जाता था ? उनका माल कौन बेच देता था ? इतिहास साक्षी है कि वह सब हम ही करते थे। फौरन धनवान बन जानेकी नीयतसे हम उनका स्वागत करते थे, उनकी मदद करते थे। मुझे भाँग पीनेकी आदत हो और भाँग बेचनेवाला मुझे भाँग बेचे तो दोष उसका है या मेरा अपना ? उसीको दोष देनेसे मेरी लत थोड़े ही छूट जायेगी? एकको भगा दें तो क्या मुझे दूसरा भाँग बेचनेवाला नहीं मिल जायेगा ? भारतके सच्चे सेवकको ठीक-ठीक खोज करके इसके मूलकी जाँच करनी होगी। यदि मुझे बहुत खानेके कारण अजीर्ण हो गया हो तो मैं आबहवाको दोषी ठहराकर अजीर्ण दूर नहीं कर सकूँगा । वैद्य तो वह है जो रोगका मूल खोज निकाले । आप भारतके रोगके वैद्य बनना चाहते हैं तो रोगका मूल खोजना ही होगा ।

पाठक : आप सच कहते हैं । अब मुझे समझानेके लिए आपको तर्क देनेकी जरूरत नहीं पड़ेगी। मैं आपके विचार जाननेके लिए अधीर हो उठा हूँ । हम अत्यन्त रोचक प्रसंगपर आ गये हैं। इसलिए अब आप मुझे अपने विचार ही बताइए। मुझे जहाँ शंका होगी वहाँ आपको टोकूंगा । सम्पादक : बहुत अच्छा । परन्तु मुझे डर है कि आगे चलनेपर जरूर ही हमारे बीच फिर मतभेद होगा, किन्तु अब आप जब टोकेंगे तभी मैं तर्कमें उतरूँगा ।

हमने देखा कि अंग्रेज व्यापारियोंको हमने बढ़ावा दिया तब वे पैर फैला सके। इसी तरह जब हमारे यहाँके राजा आपस में लड़े तब उन्होंने कम्पनी बहादुरसे मदद माँगी । कम्पनी व्यापार तथा लड़ाईके काममें कुशल थी । उसमें उसे नीति अनीतिकी बाधा नहीं थी । व्यापार बढ़ाना और धन कमाना उसका धन्धा था । उसमें जब हमने मदद दी तब उसने मदद ली और अपनी कोठियाँ बढ़ाईं। कोठियोंकी रक्षाके लिए उसने सेना रखी। उस सेनाका हमने उपयोग किया । और अब उसपर दोष मढ़े तो यह ठीक नहीं है । उस समय हिन्दू-मुसलमानोंमें वैर था । उससे कम्पनीको मौका मिला । यों, सब तरहसे हमने कम्पनीको मौका दिया कि उसका अधिकार सारे भारतपर हो जाये; इसलिए यह कहने के बजाय कि भारत चला गया, यह कहना ज्यादा सच है कि अपना देश अंग्रेजोंको हमने सौंप दिया ।

१. ईस्ट इण्डिया कम्पनी ।



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