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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इसके सिवा लोग वकील बनते हैं, सो कुछ दूसरोंके दुःख दूर करनेके लिए नहीं, वरन पैसा कमानेके लिए। वह पैसा कमानेका एक रास्ता है। इसलिए वकीलका स्वार्थ टंटा बढ़ानेमें ही है। मैं जानता हूँ कि वकील, जब टंटे होते हैं, तो खुश होता है। मुख्त्यार भी वकीलकी जातिके ही हैं। जहाँ कुछ न हो, वे वहाँ झगड़े खड़े करते हैं। उनके दलाल होते हैं। वे जोंककी तरह गरीब आदमीसे चिपट जाते हैं और उसका खून चूस लेते हैं। यह धन्धा ही इस तरहका है जिससे लोगोंको झगड़े करनेकी उत्तेजना मिलती है। वकील निठल्ले होते हैं। आलसी व्यक्ति ऐश-आराम भोगनेके लिए वकील बन जाते हैं - यह वास्तविकता है। दूसरी जो दलीलें पेश की जाती हैं, वे तो बहाना हैं। इस बातका आविष्कार वकीलोंने ही किया है कि वकालत एक बड़ा इज्जतदार पेशा है। वे ही कानून बनाते हैं। उसका बखान भी वे ही करते हैं। लोगोंसे कितनी फीस ली जाये यह भी वे ही तय करते हैं और उनपर रोब जमानेके लिए आडम्बर ऐसा करते हैं मानो वे आकाशसे अवतरित कोई दिव्य पुरुष हों ।

वे मजदूरसे अधिक दैनिक पारिश्रमिक क्यों माँगते हैं ? उनकी जरूरतें मजदूरकी अपेक्षा अधिक क्यों हैं? मजदूरकी अपेक्षा उन्होंने देशका कौन-सा अधिक भला किया है ? क्या भला करनेवालेको अधिक पैसा लेनेका हक है ? और जो कुछ उन्होंने किया वह यदि पैसेके लिए किया है, तो उसे भला कैसे कहा जाये ? मैंने उनके धन्धेका जो गुण है, सो आपको बताया। किन्तु यह एक अलग बात है।

जिन्हें इस बातका अनुभव है, वे जानते होंगे कि हिन्दू-मुसलमानोंके बीच कई दंगे वकीलोंके कारण हुए हैं। उनके कारण अनेक कुटुम्ब पामाल हुए हैं। उनके कारण भाई-भाई आपसमें दुश्मन हो गये हैं। कई रजवाड़े वकीलोंके जालमें फँसकर कर्जदार हो गये हैं। कितने ही जागीरदार वकीलोंकी कारस्तानी के कारण लुट गये। ऐसे कितने ही उदाहरण दिये जा सकते हैं।

किन्तु सबसे अधिक नुकसान उनके हाथों यह हुआ कि अंग्रेजी शिकंजे में हमारा गला बड़ी बुरी तरह फँस गया है। आप विचार कीजिए । क्या आप सोचते हैं कि अंग्रेजी अदालतें न होतीं, तो अंग्रेज राज्य चला सकते थे ? ये अदालतें कुछ प्रजाके हितके लिए नहीं हैं। जिन्हें अपनी सत्ता कायम रखनी है, वे अदालतके मारफत लोगोंको वशमें रखते हैं। यदि लोग आपसमें लड़ निपटें, तो तीसरा आदमी उनपर अपनी सत्ता नहीं जमा सकता। सचमुच खुद दो-दो हाथ करने अथवा अपने सम्बन्धियोंको पंच बनाकर लड़ लेनेमें, मर्दानगी होती थी । तव अदालतें आईं तो लोग कायर हो गये । आपसमें लड़ मरना जंगलीपन गिना जाता था। अब तीसरा आदमी हमारे टंटे निपटाता है; क्या यह कम जंगलीपन है ? क्या कोई कह सकता है कि जब तीसरा आदमी फैसला देता है, तो वह सही ही होता है ? दोनों पक्षोंके लोग जानते हैं कि कौन सच्चा है, हम अपने भोलेपनमें यह विश्वास कर लेते हैं कि तीसरा आदमी हमसे पैसा लेकर हमारा न्याय करता है ।

[ लेकिन ] इस बात को छोड़ दें। बताना तो इतना ही है कि अंग्रेजोंने अदालतोंके जरिये हमारे ऊपर सत्ता जमाई है और यदि वकील न हों, तो ये अदालतें चल ही

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