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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

डॉक्टरोंने हमको बिलकुल हिला दिया है। मेरी इच्छा होती है कि मैं ऐसा कहूँ कि डॉक्टरोंसे तो नीम-हकीम भले । इसपर हम कुछ विचार करें ।

डॉक्टरोंका काम केवल शरीरकी सँभाल करना है; बल्कि शरीर सँभालनेका भी नहीं, शरीरमें जो रोग हो उसे दूर करना है। रोग क्यों होता है ? हमारी अपनी गलतीसे। मैं बहुत खा लेता हूँ, अजीर्ण हो जाता है और डॉक्टरके पास जाता हूँ वह मुझे गोली दे देता है । मैं ठीक हो जाता हूँ। और फिर खूब खाता हूँ और फिर गोली लेता हूँ। यह इससे हुआ है। यदि मैं गोली न लेता, तो अजीर्णकी सजा भोगता और फिर हृदसे ज्यादा न खाता । डॉक्टर बीचमें आया और उसने मुझे हृदसे ज्यादा खानेमें मदद की। इसलिए मेरा शरीर तो ठीक हो गया, किन्तु मेरा मन कमजोर पड़ गया। ऐसा होते-होते अन्तमें मेरी स्थिति ऐसी हो जाती है कि मैं अपने मनपर तनिक भी काबू नहीं रख सकता ।

मैं विलासमें पड़ा, बीमार हुआ और मुझे डॉक्टरने दवा दी। मैं ठीक हो गया । क्या मैं फिर विलासमें नहीं पहुँगा ? पहुँगा ही। यदि डॉक्टर बीचमें न पड़ता, तो प्रकृति अपना काम करती, मेरो मन दृढ़ बनता और मैं अन्तमें निविषयी होकर सुखी हो जाता ।

अस्पताल पापकी जड़ हैं। उनके कारण लोग शरीरकी ठीक सँभाल नहीं करते और अनीति बढ़ाते हैं ।

यूरोपके डॉक्टर तो हद करते हैं । वे केवल शरीरकी खोटी रक्षाके विचारसे प्रतिवर्ष लाखों जीवोंको मारते हैं। जीवित प्राणियोंपर प्रयोग करते हैं। ऐसा करना किसी भी धर्मको स्वीकार नहीं है। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी, सभी कहते हैं कि मनुष्यके शरीरके लिए इतने जीवोंको मारनेकी जरूरत नहीं है।

डॉक्टर हमें धर्मभ्रष्ट करते हैं। उनकी ज्यादातर दवाओंमें चरबी अथवा शराब होती है। ये दोनों ही चीजे हिन्दुओं और मुसलमानोंमें निषिद्ध हैं। हम सभ्य होनेका ढोंग करके सभीको अंधश्रद्धालु मानकर मनमानी करें, तो बात अलग है। किन्तु डॉक्टर, जैसा कह चुका हूँ, वैसा करते हैं, यह सच्ची और सीधी बात है।

इसका परिणाम यह हुआ है कि हम निःसत्त्व और नपुंसक हो गये हैं। ऐसी स्थितिमें हम लोकसेवा करनेके योग्य नहीं रहते और स्वयं शरीरसे दुर्बल तथा बुद्धि- हीन होते जाते हैं। अंग्रेजी अथवा यूरोपीय ढंगकी डॉक्टरी सीखनेका परिणाम गुलामीकी गाँठ मजबूत करना ही होगा ।

यह भी विचारणीय है कि हम डॉक्टर क्यों बनते हैं। उसका सही कारण तो प्रतिष्ठा और पैसा देनेवाला धन्धा करना है; [ उसमें ] परोपकारकी बात नहीं है। यह तो मैं बता चुका हूँ कि इस धन्धेमें परोपकार नहीं है। इससे तो लोगोंका नुकसान होता है। डॉक्टर लोग आडम्बर करके लोगोंके पाससे बड़ी-बड़ी फीस लेते हैं और अपनी एक पाईकी दवाकी कीमत एक रुपया लेते हैं। लोग इस तरह अच्छा होनेकी आशा और विश्वासमें पड़कर ठगे जाते हैं । ऐसी स्थितिमें भलाईका ढोंग करनेवाले डॉक्टरोंकी अपेक्षा प्रकट नीम-हकीम ज्यादा अच्छे हैं।


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