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हिंदी स्वराज्य
अध्याय १३: सच्ची सभ्यता क्या है?

पाठक: आपने रेलवेको रद कर दिया, वकीलोंकी खिल्ली उड़ाई और डॉक्टरोंकी कलई खोल दी। देखता हूँ कि यन्त्र मात्र आपको नुकसानदेह जान पड़ते हैं। फिर सभ्यता किसे कहा जाये ?

सम्पादक : इस सवालका जवाब मुश्किल नहीं है। मेरी मान्यता है कि भारतने जो सभ्यता विकसित की है, उसे दुनियामें कोई नहीं पहुँच सकता । जो बीज हमारे पुरखोंने बोये हैं उनकी बराबरी कर सकने योग्य कहीं कुछ देखनेमें नहीं आया । रोम मिट्टीमें मिल गया, ग्रीसका नाम-भर बच रहा, मिस्रका साम्राज्य चला गया, जापान पश्चिमके शिकंजेमें आ गया और चीनका कुछ कहा नहीं जा सकता। किन्तु इस भग्नावस्थामें भी भारतकी बुनियाद अभी मजबूत है।

यूरोपके लोग विनष्ट रोम और ग्रीसकी किताबोंसे शिक्षा लेते हैं। वे सोचते हैं कि वे उन-जैसी गलतियाँ नहीं करेंगे। ऐसी दयनीय अवस्था है उनकी, जब कि भारत अचल है। यही उसका भूषण है। भारतपर यह आरोप लगाया जाता है कि वह इतना जंगली और अज्ञान है कि उससे किसी प्रकारका परिवर्तन कराना सम्भव नहीं है। यह आरोप हमारा गुण है, दोष नहीं। अनुभवसे हमें जो ठीक लगा है, उसे हम क्यों बदलें ? बहुतेरे अक्ल देनेवाले आते-जाते रहते हैं, किन्तु भारत अडिग रहता है। यह उसकी खूबी है, यह उसका लंगर है ।

सभ्यता वह आचरण है जिसके द्वारा आदमी अपना फर्ज अदा करता है। फर्ज अदा करना, अर्थात् नीतिका पालन करना । नीतिका पालन, अर्थात् अपने मन और इन्द्रियोंको वशमें रखना । इस प्रकार आचरण करते हुए हम अपने आपको पहचानते हैं; यही सभ्यता है । इसके विरुद्ध जो है वह असभ्यता है।

बहुत-से अंग्रेज लेखक लिख गये हैं कि ऊपरकी व्याख्याके मुताबिक भारतको कुछ भी सीखना बाकी नहीं है। उनका यह कथन ठीक है। हमने देखा कि मनुष्यकी वृत्तियाँ चंचल हैं। उसका मन भटकता रहता है। उसके शरीरको ज्यों-ज्यों अधिक दिया जाये, त्यों-त्यों वह अधिकाधिक माँगता है। अधिक पाकर भी वह सुखी नहीं होता । भोगोंको भोगते रहनेसे भोगकी इच्छा बढ़ती जाती है। इसलिए पूर्वजोंने सीमा बाँध दी। बहुत सोचकर उन्होंने देखा कि सुख-दुःखका कारण मन है । सम्पन्न व्यक्ति सम्पन्नताके कारण सुखी नहीं है। गरीब गरीबीके कारण दुःखी नहीं है। अमीर दुःखी देखने में आते हैं और गरीब भी सुखी दिखाई पड़ते हैं। करोड़ों व्यक्ति गरीब ही रहेंगे। ऐसा देखकर उन्होंने भोगकी वासना छुड़वाई । हजारों वर्ष पहले जो हल था, हमने अपना काम उसीसे चलाया। हजारों साल पहले हमारी जैसी झोपड़ियाँ थीं, उन्हें हमने कायम रखा। हजारों वर्ष पहले जैसा अपना शिक्षण था, वही चलता रहा। हमने विनाशकारी स्पर्धा नहीं की, सब अपना-अपना धन्धा करते रहे। उसमें उन्होंने दस्तूरके मुताबिक दाम लिये। ऐसा नहीं है कि हम यन्त्र आदिकी खोज कर नहीं सकते थे। किन्तु

१. देखिए “ प्रतिष्ठित व्यक्तियोंकी साक्षी ", हिन्द स्वराज्यका परिशिष्ट- २, पृष्ठ ६६-६९ ।

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