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हिंदी स्वराज्य
अध्याय १८ : शिक्षण

पाठक: आपने इतना सब कहा, किन्तु उसमें शिक्षणकी आवश्यकता तो कहीं बताई ही नहीं। हम लोग शिक्षणकी कमियोंकी शिकायत हमेशा ही करते रहते हैं । हम देखते हैं, अनिवार्य शिक्षण देनेके विषय में सारे भारतमें आन्दोलन हो रहा है। महाराज गायकवाड़ने अनिवार्य शिक्षण शुरू किया है। सबकी दृष्टि उस ओर गई है। हम उन्हें धन्यवाद देते हैं। क्या यह सारा प्रयत्न व्यर्थ समझा जाये ?

सम्पादक : यदि हम अपनी सभ्यताको सर्वोत्तम मानते हैं, तो मुझे अफसोसके साथ कहना पड़ेगा कि यह प्रयत्न अधिकांशतः व्यर्थ है। महाराज साहब तथा हमारे अन्य धुरन्धर नेतागण सभीको शिक्षित करनेकी जो कोशिश कर रहे हैं, उसमें उनका हेतु निर्मल है। इसलिए उन्हें धन्यवाद ही देना चाहिए । किन्तु उनके प्रयत्नका जो नतीजा हो सकता है, उसे हम नजर अन्दाज नहीं कर सकते ।

शिक्षणका क्या अर्थ है ? यदि उसका अर्थ केवल अक्षर-ज्ञान ही हो, तो तब वह एक साधनमात्र हुआ । उसका सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी । हम किसी औजारसे शल्य-चिकित्सा करके बीमारको अच्छा कर सकते हैं और वही शस्त्र किसीकी जान लेनेके लिए भी काममें लाया जा सकता है। अक्षर-ज्ञान भी ऐसा ही है। बहुत से व्यक्ति उसका दुरुपयोग करते हैं, यह तो हम देखते ही हैं। सदुपयोग अपेक्षाकृत कम लोग करते हैं। यदि यह बात ठीक हो, तो भी सिद्ध यह होता है कि अक्षर-ज्ञानसे दुनिया में फायदेके बदले नुकसान हुआ है।

शिक्षणका साधारण अर्थ अक्षर-ज्ञान ही होता है। लोगोंको लिखना, पढ़ना और हिसाब लगाना सिखाना इसे ही मूल अथवा प्राथमिक शिक्षण कहा जाता है। किसान ईमानदारीसे खेती करके रोटी कमाता है । उसे साधारण दुनियावी ज्ञान है। उसे इन सब बातोंका पर्याप्त ज्ञान है कि माँ-बापके प्रति कैसा आचरण किया जाये, अपनी स्त्री और बच्चोंकी तरफ कैसा बरताव किया जाये और जिस गाँवमें वह रहता है वहाँ वह कैसा व्यवहार रखे। वह नीतिके नियमोंको समझता है और उनका पालन करता है, किन्तु उसे अपने हस्ताक्षर करना नहीं आता । इस व्यक्तिको अक्षर- ज्ञान देकर आप क्या करना चाहते हैं ? उसके सुखमें आप क्या वृद्धि करेंगे ? क्या आप उसके मनमें उसकी झोंपड़ी अथवा उसकी स्थितिके विषयमें असन्तोष पैदा करना चाहते हैं? ऐसा करना हो, तो भी उसे अक्षर-ज्ञान देनेकी आवश्यकता नहीं है। पश्चिमके प्रभावमें आकर हमने यह बात पकड़ ली है कि लोगोंको शिक्षण दिया जाये । किन्तु हम इसमें आगे-पीछेकी बात नहीं सोचते ।

अब उच्च शिक्षणको लीजिए। मैंने भूगोल-विद्या सीखी, खगोल शास्त्र सीखा, बीजगणित भी मुझे आ गया, रेखागणितका भी ज्ञान प्राप्त किया, भूगर्भ-विद्याको चाट गया, किन्तु इससे हुआ क्या ? मैंने उससे अपना क्या भला किया ? अपने आसपासका क्या भला किया। वह ज्ञान मैंने किसलिए प्राप्त किया ? उससे मुझे क्या फायदा हुआ ? एक अंग्रेज विद्वान (हक्सले) ने शिक्षणके बारेमें इस तरह कहा है :


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