पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 10.pdf/९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५४
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सच्ची शिक्षा उस मनुष्यने पाई है जिसके शरीरको ऐसी तालीम दी गई है कि वह उसके वशमें रह सकता है - सौंपा हुआ काम सहर्ष और सरलताके साथ करता है। सच्ची शिक्षा उस व्यक्तिने पाई है जिसकी बुद्धि शुद्ध है, शान्त है और न्यायदर्शी है। सच्ची शिक्षा उसे मिली है जिसका मन प्राकृतिक नियमों [ के ज्ञान ] से ओतप्रोत है और जिसकी इन्द्रियाँ उसके वश में हैं, जिसकी अन्तर्वृत्ति शुद्ध है और जो नीच कामोंसे घृणा करता है और दूसरोंको अपने समान समझता है। ऐसा व्यक्ति वास्तविक रूपसे शिक्षित कहा जायेगा, क्योंकि वह प्राकृतिक नियमोंके अनुसार चलता है। प्रकृति उसका अच्छा उपयोग करेगी और वह प्रकृतिका अच्छा उपयोग करेगा ।

यदि यह सच्चा शिक्षण हो, तो मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि जो शास्त्र मैंने गिनाये, उनका उपयोग मुझे अपने शरीर या इन्द्रियोंको वशमें करनेके लिए नहीं करना पड़ा। मतलब यह कि प्राथमिक शिक्षणको लो, चाहे उच्च शिक्षणको, उसका उपयोग मुख्य उद्देश्यमें नहीं होता। उससे हम मनुष्य नहीं बनते। उसके द्वारा हम अपना कर्तव्य नहीं पहचानते ।

पाठक : यदि ऐसा ही है, तो मुझे आपसे एक प्रश्न पूछना पड़ेगा । आप यह जो सब-कुछ कह रहे हैं, वह किसका प्रताप है ? यदि आपने अक्षर-ज्ञान और उच्च शिक्षण न लिया होता, तो आप [मुझे ] किस प्रकार समझा पाते ?

सम्पादक : यह आपने खूब चोट की। किन्तु मेरा जवाब भी सीधा ही है। मैं यह नहीं मानता कि मैंने ऊँची या नीची शिक्षा न ली होती, तो मैं निकम्मा रह जाता । अब बोलकर उपयोगी बननेकी इच्छा करता हूँ ।' ऐसा करते हुए मैंने जो कुछ पढ़ा है, उसे काममें लाता हूँ और उसका उपयोग, यदि वह उपयोग हो तो, मैं अपने करोड़ों भाइयोंके लिए तो नहीं कर सकता, किन्तु केवल आप-जैसे शिक्षित लोगोंके लिए करता हूँ। इससे भी मेरी बातको ही समर्थन मिलता है। आप और मैं दोनों गलत शिक्षणके फन्देमें फँस गये थे। मैं उससे अपनेको मुक्त हो गया मानता हूँ। अब वह अनुभव मैं आपसे कहता हूँ और कहते वक्त प्राप्त शिक्षाका उपयोग करके उसमें जो सड़ांध है, उससे आपका परिचय कराता हूँ ।

इसके सिवा आपने जो चोट मुझपर की, उसमें आप चूक गये; क्योंकि मैंने अक्षर-ज्ञानको हर परिस्थितिमें निन्दनीय नहीं माना है। मैंने इतना ही कहा है कि हमें उस ज्ञानकी मूर्ति-पूजा नहीं करनी चाहिए । वह कुछ हमारी कामधेनु नहीं है । वह अपनी जगहपर शोभा दे सकता है और वह अपनी जगह तब प्राप्त करता है जब हमने अपनी इन्द्रियोंको वशमें कर लिया हो, और नीतिकी नींव दृढ़ कर ली हो; तब यदि हमें अक्षर-ज्ञान प्राप्त करनेकी इच्छा हो, तो उसे प्राप्त करके उसका अच्छा उपयोग भी हम कर सकते हैं। वह शिक्षा आभूषणके रूपमें शोभा दे सकती है। किन्तु यदि उसका उपयोग आभूषणके रूपमें ही हो, तो उसे अनिवार्य बनानेकी आवश्यकता

१. अंग्रेजी पाठके अनुसार : "अब बोलकर उपयोगी सिद्ध हो रहा हूँ, ऐसा अभिमान नहीं करता; उपयोगी बननेकी इच्छा अवश्य करता हूँ ।”


Gandhi Heritage Portal