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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अब 'नहीं' कैसे सो बताता हूँ। हम ऐसे रोगमें फँस गये हैं कि अंग्रेजी शिक्षण लिये बिना काम चलनेका समय नहीं रहा। जिसने वह शिक्षा पाई है, वह उसका अच्छा उपयोग करे. - जहाँ उसकी जरूरत हो वहाँ करे। अंग्रेजोंके साथ और ऐसे भारतीयोंके साथ जिनकी भाषा हम न समझ सकते हों और यह समझनेके लिए कि अंग्रेज अपनी सभ्यतासे खुद कितना परेशान हो गये हैं, अंग्रेजीका उपयोग किया जाये । जो अंग्रेजी पढ़े हुए हैं, उनकी सन्तानको पहले नीतिकी शिक्षा दी जानी चाहिए। उन्हें उनकी मातृभाषा सिखानी चाहिए और भारतकी एक दूसरी भाषा भी सिखानी चाहिए। बच्चे जब काफी बड़े हो जायें, तब भले ही उन्हें अंग्रेजी पढ़ाई जाय । और वह भी उसको मिटानेके इरादेसे, न कि उसके जरिए पैसा कमानेके विचारसे । यह करते हुए भी आपको यह सोचना पड़ेगा कि अंग्रेजीमें क्या सीखें और क्या न सीखें। कौन-सा शास्त्र पढ़ें, इसका भी विचार करना पड़ेगा। थोड़ा ही सोचनेपर स्पष्ट हो जायेगा कि यदि अंग्रेजी डिग्री इत्यादि लेना हम बन्द कर दें, तो अंग्रेज अमलदार चौंक उठेंगे ।

पाठक : तब कैसी शिक्षा दी जाये ?

सम्पादक: उसका उत्तर कुछ हद तक ऊपर आ चुका है। फिर भी हम और विचार करें। मुझे तो लगता है कि हमें अपनी सभी भाषाओंको चमकाना चाहिए। हमें अपनी भाषाओंके द्वारा ही शिक्षा लेनी चाहिए इस बातका क्या अर्थ है • इसे अधिक समझानका यह स्थान नहीं है। जो अंग्रेजी पुस्तकें कामकी हैं, हमें उनका अनुवाद करना होगा। बहुत-से शास्त्र सीखनेका दम्भ और भ्रम हमें छोड़ना होगा। सबसे पहले धर्म अथवा नीतिकी ही शिक्षा दी जानी चाहिए। प्रत्येक पढ़े-लिखे भारतीयको अपनी भाषाका, हिन्दूको संस्कृतका, मुसलमानको अरबीका, पारसीको फारसीका, और हिन्दीका ज्ञान सबको होना चाहिए। कुछ हिन्दुओंको अरबी और कुछ मुसलमानों और पारसियोंको संस्कृत सीखनी चाहिए। उत्तर और पश्चिम भारतके लोगोंको' तमिल सीखनी चाहिए। सारे भारतके लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होगी । उसे उर्दू या देवनागरी लिपिमें लिखनेकी छूट रहनी चाहिए । हिन्दू और मुसलमानों सद्भाव रहे, इसलिए बहुतसे भारतीयोंको ये दोनों लिपियाँ जान लेनी चाहिए। ऐसा होनेपर हम आपसके व्यवहारमें अंग्रेजीको निकाल बाहर कर सकेंगे ।

और यह सब किसके लिए है ? हम जो गुलाम बन गये हैं उनके लिए। हमारी गुलामीके कारण देशकी जनता गुलाम हो गई है। अगर हम इससे मुक्त हो गये, तो जनता भी मुक्त हो जायेगी ।

पाठक: आपने जो धर्मकी शिक्षाकी बात कही, वह कठिन जान पड़ती है।

सम्पादक: फिर भी उसके बिना छुटकारा नहीं है। भारत नास्तिक कभी नहीं बनेगा। भारतकी भूमि नास्तिकताकी फसलके अनुकूल नहीं है। काम कठिन है। धर्मकी शिक्षाकी बात सोचते ही सिर चकराने लगता है। धर्माचार्य दम्भी और स्वार्थी दिखाई पड़ते हैं। हमें उनसे विनती करनी पड़ेगी। मुल्ला, दस्तूर और ब्राह्मण • इनके

१. अंग्रेजी पाठके अनुसार : बहुतेरे लोगोंको' ।


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