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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बात आपको कठिन जान पड़ेगी, किन्तु यह कहना मेरा कर्तव्य है कि भारतमें मिलें कायम करनेकी बजाय मैन्चेस्टरको अभी और रुपया भेजते रहकर उसका सड़ा हुआ कपड़ा इस्तेमाल करते रहनेमें हमारा भला है; क्योंकि उसका कपड़ा इस्तेमाल करनेमें केवल हमारा पैसा जायेगा । यदि हम भारतमें मैन्चेस्टर बना डालें, तो पैसा भारतमें रहेगा किन्तु वह पैसा हमारा खून चूस लेगा। क्योंकि वह हमारी नीति-निष्ठा और हमारे आचारको समाप्त कर देगा। जो मिलोंमें काम करते हैं उनके आचारका क्या हाल है यह उन्हींसे पूछा जाये। उनमें से जिन लोगोंने द्रव्य संचय किया है, उनमें नैतिकता अन्य धनवानोंसे अधिक हो, यह सम्भव नहीं है। यह मानना तो अज्ञान ही होगा कि अमरीकी राकफेलरसे भारतीय राकफेलर कुछ कम हैं। गरीब भारत गुलामीसे छूट जायेगा, लेकिन अनीतिसे धनवान बना हुआ भारत गुलामीसे छुटकारा पायेगा ही नहीं ।

मुझे तो लगता है कि हमें यह कबूल करना पड़ेगा कि धनवानोंने ही अंग्रेजी राज्यको यहाँ बना रखा है। उनका स्वार्थ इसीमें है। पैसा आदमीको लाचार बना देता है। संसारमें ऐसी दूसरी चीज विषय-वासना है। ये दोनों चीज़े विषमय हैं । उनका दंश साँपके दंशसे भी भयानक है । साँप काटता है तो देह लेकर छोड़ देता है, पैसा अथवा विषय काटता है तब देह, मन और आत्मा सब-कुछ लेकर भी नहीं छोड़ता। इसलिए हमारे देशमें मिलें कायम हों, तो इसमें खुश होनेकी कोई बात नहीं है ।

पाठक : तो क्या मिलोंको बन्द कर दिया जाये ?

सम्पादक: यह बात मुश्किल है। जो वस्तु स्थापित हो गई है, उसे निकालना कठिन है। इसलिए कार्यका अनारभ्भ ही पहली बुद्धिमानी कही गई है। मिल-मालिकोंकी ओर हम तिरस्कारकी दृष्टिसे नहीं देख सकते। हमें उनपर दया करनी चाहिए। वे एकाएक मिल छोड़ देंगे, यह सम्भव नहीं है, लेकिन हम उनसे इस साहसको और आगे न बढ़ानेकी प्रार्थना कर सकते हैं। यदि वे भलाईकी इच्छा करें, तो अपना काम स्वयं धीरे-धीरे कम करें। वे खुद प्राचीन, प्रौढ़ और पवित्र चरखेको घरमें जगह दे सकते हैं और लोगोंका बुना हुआ कपड़ा लेकर बेच सकते हैं ।

वे ऐसा न करें, तो भी लोग स्वयं मशीनोंसे बनी हुई चीजोंको काममें लाना बन्द कर सकते हैं ।

पाठक: यह तो कपड़ोंके बारेमें आपने कहा । किन्तु यन्त्रकी तो असंख्य चीजें हैं। उन्हें या तो विदेशसे लाना होगा या हमें उस प्रकारके यन्त्र दाखिल करने पड़ेंगे।

सम्पादक : बेशक । हमारे देवता [ मूर्तियाँ] भी जर्मनीके यन्त्रोंसे बनकर हमारे पास आते हैं, तो फिर दियासलाई या आलपीनसे लेकर झाड़-फानूस आदिकी तो बात ही क्या की जाये ? मेरा एक ही उत्तर है। जब ये सब चीजें यन्त्रसे नहीं बनती थीं, तब भारत क्या करता था ? आज भी वह वैसा ही कर सकता है। जबतक हम हाथसे आलपीन नहीं बनाते, तबतक बिना आलपीनके चलायेंगे, झाड़- फानूसको आग लगा देंगे। माटीके दियेमें तेल डालकर, खेतमें पैदा हुई रुईको बत्ती


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