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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रह जाना पड़ता है । 'डेली मेल' कहता है, हमें लगता है कि जो शिकायत की गई है वह यथार्थमें ध्यान देने योग्य है । एक सच्चा हिन्दू चर्बीको छूनेके बदले अपनी मौत पसन्द करेगा | इस देशमें हम जिसे जेलकी सजा देते हैं, उसे वहाँ भूखा रखनेकी सजा नहीं देते। जेल में यदि कोई गोरा शाकाहारी हो और उसे हम मांसाहार करनेके लिए बाध्य करें तथा वह न खाये तो उसे भूखा रहनेको कहें अथवा किसी यहूदी से ऐसा कहें कि तुम्हें चर्बी खानी हो तो खाओ और कुछ नहीं मिलेगा, तब तो जबरदस्त कोलाहल उठ खड़ा होगा । अथवा जो सोडा- ह्विस्की न पीता हो उससे कहें कि तुम्हें पीनेके लिए सोडा या ह्विस्की मिलेगी और अगर नहीं पियोगे तो प्यासे रहना पड़ेगा, तो बड़ा शोरगुल मच जायेगा । भारतीय चाहे जिस जेलमें हों, उन्हें उनका चावल और घी तो दिया ही जाना चाहिए।

चैमने नाकाबिल ?

श्री चैमने अपने पदके[१] लिए बिल्कुल अयोग्य हैं, ऐसा श्री गांधी जनरल स्मट्सको कई बार बता चुके हैं। श्री भाईजीको[२] एक महीनेकी कैदकी सजा हुई, यह तो ठीक हुआ। मैं इसके लिए श्री भाईजीको बधाई देता हूँ । किन्तु जब श्री मूलजी पटेल तथा श्री हरिलाल गांधीको छोड़ दिया गया तब श्री भाईजीको सजा किस खयालसे दी गई है ? श्री भाईजीके पास भी अनुमतिपत्र ( परमिट) और पंजीयन प्रमाणपत्र ( रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट) हैं । जिसप्रकार ऊपरके दोनों व्यक्तियोंको नये कानूनके अन्तर्गत अर्जी देनेका अधिकार है, उसी प्रकार श्री भाईजीको भी है। श्री भाईजी अर्जी देनेवाले नहीं हैं, यह दूसरी बात है । किन्तु सही कहा जाये, तो सरकारको दो महीने तक उन्हें पकड़नेका कोई हक नहीं था । श्री पोलकने इस मामलेकी बहुत ही कड़ी आलोचना की है । और यह मुकदमा होनेसे हमारा फायदा ही हुआ है । किन्तु यह सब लिखने में मेरा उद्देश्य यह है कि श्री चैमनेको हटानेके लिए इस बार ब्रिटिश भारतीय संघको अर्जी देना जरूरी हो जायेगा । मैं श्री चमनेके पेटपर लात नहीं मारना चाहता, किन्तु जो अधिकारी अपने कामको बिल्कुल ही न समझे, उससे समाजका कोई लाभ होनेवाला नहीं है ।

दूसरी ओर देखें तो ऐसा जान पड़ता है कि श्री चैमनेकी बेवकूफीके कारण भारतीय समाजको लाभ हुआ है । यदि उन्होंने गम्भीर भूलें न की होतीं, तो हमारा छुटकारा जितनी शीघ्रता से हुआ है उतनी शीघ्रता से कदापि न होता । और जो कुछ बाकी रह गया है, उससे भी श्री चैमनेकी भूलोंके कारण हमको जल्दी ही छुटकारा मिलेगा।

हिम्मतसे भरा पत्र

'कानूनके दुःखसे पीड़ित एक गरीब भारतीय " ने, जिसका पत्र मैं पहले दे चुका हूँ,[३] इस बार अपना नाम 'कष्टोंकी परवाह न करके सत्याग्रहमें जूझ जानेवाला" रखकर लिखा है कि उक्त पत्र उसने हारकर नहीं लिखा। उसने बहुत-से लोगोंके विचारोंको सिर्फ प्रकट किया है । वह लिखता है कि मनके साथ हम तन और धनका नाता नहीं जोड़ते। जो कदम आप

  1. देखिए खण्ड ६, पृष्ठ ४२८-२९ खण्ड ७ पृष्ठ ३५९-६० और ४०६ ।
  2. यह नाम है ।
  3. देखिए 'जोहानिसबर्गको चिट्ठी', पृ४ ६६ ।