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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

मर्जीपर है । हम आज भी हरएक बातमें ढीले हैं, और इसीसे नियमित नहीं हैं । नियमित हो जायें तो हर काम जल्दी कर सकेंगे। मैं दो बातें अर्ज करता हूँ : एक तो यह कि हमने पहली लड़ाई रामसुन्दरसे शुरू की और दूसरी सोराबजीसे ।[१] श्री सोराबजीको जैसा लिखा वैसा मैंने दूसरोंको भी लिखा । उत्तर में सबसे पहला पत्र सोराबजीका आया । मैं सोराबजीको उतना नहीं जानता था जितना कि रामसुन्दरको, और इस बारेमें सन्दिग्ध था कि वे अन्त तक कैसा निभायेंगे। मैं तो आदमी जैसा कहता है वैसा मान लेता हूँ । सोराबजीने क्या किया, सो समाजने देखा । फोक्सरस्ट जेलमें मेरे साथ ७५ कैदी थे। मैंने पाया कि सोराबजी उनमें सबसे अधिक नरम, शान्त-प्रकृति और दृढ़ व्यक्ति हैं । कोई चाहे उनसे कुछ कहे, कुछ बोले, वे उसकी परवाह न करके सह लेते थे । उनके साथ रहकर मैंने उनकी कीमत बहुत अच्छी तरह आँक ली है ।

दूसरे, इमाम साहब, मूसाजी तथा उन दो मद्रासियोंमें से, जिन्हें छः-छः सप्ताह की सजा हुई थी, मैं इमाम साहबके साथ काफी रहा हूँ। मैं चिन्तित था कि [ ऐसी ] सेहत और शरीर लेकर ये [ सब-कुछ ] कैसे बर्दाश्त कर पायेंगे। लेकिन, मैंने देखा कि जो भी कष्ट आया, उन्होंने उठाया; जो भी काम आया, उन्होंने किया । हमीदिया इस्लामिया अंजुमन और कौमकी भी तकदीर बुलन्द है कि अंजुमनको ऐसे अध्यक्ष मिले हैं। एक बार जब जेलरने [ कैदियोंको ] घास काटने के लिए चलनेका हुक्म दिया तो कोई नहीं उठा । इमाम साहबको लगा कि यह हमारा फर्ज है। जब वे खुद उठे तो दूसरे लोग कहने लगे कि ये इमाम हैं, इसलिए इन्हें न ले जाइये, बल्कि उस समय वे लोग शरमा गये । हमारी ऐसी ही आदतें हमारे संघर्षको लम्बा करती हैं। दूसरोंके छूट जानेपर हम थोड़े ही लोग रह गये । मूसा इसाकजीने भोजन बनानेका काम अपने मत्थे लिया । इमाम साहबने साथ देना मंजूर किया । रातके तीन बजे उठकर वे भोजन पकाने जाते थे । समाजमें ऐसे भारतीय हैं तो मैं जीत मिल गई ही मानता हूँ । जेल जानेवालोंको मेरी खास सलाह है कि वे जेलके कानून-कायदेके मुताबिक चलेंगे। खुदाको सामने रखकर काम करेंगे तो बेड़ी टूटते देर नहीं लगेगी । खोटे अनुमतिपत्रवालोंके लिए तो हमें बिल्कुल लड़ना ही नहीं है। पहलेकी लड़ाई समाप्त हो चुकी है। अब तो यह लड़ाई भारतमें रहनेवाले करोड़ों भारतीयोंकी नाक रखनेके लिए है । साम्राज्य सरकार तो भारतीयोंको दक्षिण आफ्रिका से निकाल बाहर करनेका उपाय कर रही है। वह चाहती है कि हम वहाँ रहें जहाँकी आबोहवा अच्छी नहीं है । इसलिए सरकारको अपनी मर्दानगी बता देना मैं जरूरी समझता हूँ । हमें अब झूठे लोगोंके लिए नहीं लड़ना है, लेकिन सच्चे इल्म सिखानेवाले पढ़े-लिखे लोग आयें तो हम इज्जतसे रह सकते हैं। और जबतक हम इतना भी नहीं जानते, तबतक जीत नहीं हो सकती । देखता हूँ, कुछ लोग नामके भूखे हैं। ऐसी बात उनके दिलमें क्यों होनी चाहिए ? जो देश सेवा करना चाहते हैं, खुदापर भरोसा रखते हैं, उन्हें नाम मिले तो क्या और न मिले तो क्या ? सच्चे सत्याग्रहीको उसकी परवाह नहीं होती । वह तो बस काम करता जाता है । नेटालके सज्जनोंने मुझे लड़ाईके अन्ततक साथ देनेका वचन दिया है, और वहीं वचन आज तीनों नेताओंसे मैं फिर माँगता हूँ । उन सज्जनोंने बड़ी जबरदस्त उगाही की और [ वे

  1. आशय सत्याग्रह संघर्षके पहले और दूसरे दौरसे है । देखिए खण्ड ७, पृष्ठ ३५१-५६, और खण्ड ८, पृष्ठ ३३७-४०, ३४७-५१ और ३७०-७१ ।