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७६. पत्र : मगनलाल गांधीको

सोमवारकी रात [ दिसम्बर २८, १९०८]

[१]

चि० मगनलाल,

तुम्हारे पत्र मिले। जगतसिंहका मामला दुःखद है। मेरे विचारसे इसमें विशेष दोष हिन्दुओंका है। कारण, उनका कर्तव्य विशेष था, और वे उसमें चूक गये हैं ।

जगतसिंह ब्रह्मचर्यपर मोहित नहीं होना है। लक्ष्मण तथा इन्द्रजीत, दोनों ब्रह्मचारी और निद्राजीत थे । इसीलिए दोनों पराक्रमी भी थे। किन्तु, एकका पराक्रम आसुरी था और दूसरेका देवोचित । मतलब यह कि ब्रह्मचर्यादि व्रत आत्मार्थ हों, तभी वे पवित्र और सुखकर होते हैं। असुरोंके हाथ में पड़कर तो वे दुःखकी ही वृद्धि करते हैं । यह बात बहुत गम्भीर है, फिर भी इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि यह है यथार्थ । भगवान् पतंजलिने अपने 'योगदर्शन 'में यह बहुत अच्छी तरह समझाया है। हमारे धर्मकी सीख भी तो यही है । 'मदनुग्रहाय ' शब्द कंठस्थ कर लेने लायक है। यदि इसमें कुछ समझ में न आये अथवा कोई शंका हो तो पूछना ।

तुम्हें आवेश आ जाता है, इसमें मुझे आश्चर्य नहीं होता । जैसे-जैसे गहरे उतरोगे और अनुभव प्राप्त करोगे, वैसे-वैसे तुम्हारा मन शान्त होता जायेगा, और तुम्हारे मनोवेगके शमित हो जानेपर तुम्हारा आत्मबल निखरेगा। हर पग उठाते समय, हर काम करते समय विचारपूर्वक उसका विश्लेषण करो और सोचो कि "क्या यह आत्मोन्नति के लिए है ? और यह प्रश्न कि उससे हिन्दू धर्म ऊँचा उठेगा या नहीं, देश उन्नति करेगा या नहीं, पहले प्रश्नके भीतर ही आ जाता है। जो कदम उठानेसे आत्मोन्नति नहीं होती हो, उससे न देश चढ़ सकता है, न धर्म बढ़ सकता है।

यह स्वामीजीकी[२] उतावली प्रकृतिका परिणाम जान पड़ता है। बात बड़े खेदकी है। ऐसे ही परिणामोंको दृष्टिगत करके कविश्री[३] मुझसे बार-बार कहा करते थे कि इस युगमें धर्मगुरुओंसे डरकर चलना चाहिए। अनुभव भी ऐसा ही हो रहा है। सभी अपने-अपने मतको दृढ़ करने का आग्रह रखते हैं । यही आग्रह यदि आत्मदर्शनके लिए रखें, तो अपना भी कल्याण हो और अन्तमें दूसरोंका भी । अन्यथा दोनों अधोगतिको प्राप्त होंगे ।

श्रीमती पोलक कल चलेंगी । यह पत्र भी उसी दिन मिल जायेगा। तुम मैरित्सबर्ग गये होगे तो देर से भी मिल सकता है।

शेष दूसरे पत्रमें ।

मोहनदासके आशीर्वाद

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती प्रतिकी फोटो नकल (एस० एन० ४७८१) से ।
  1. यह पत्र कभी १९०८ के अन्तिम दिनोंमें लिखा गया था ।
  2. स्वामी शंकरानन्द |
  3. श्रीमद् राजचन्द्र, देखिए खण्ड १ पृष्ठ ९१-९२