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सम्पूर्ण गांधी वाङमय

अधिकारी भी नहीं हो सकते। उनको वहाँ जानेका अधिकार है, क्योंकि नये कानूनके अन्तर्गत जो भारतीय लड़ाई से पहले तीन सालतक ट्रान्सवालमें रहा है, वह वहाँ वापस जानेका अधिकारी है । मैं देखता हूँ, यह भी कहा गया है कि हम संघर्ष के इस दूसरे दौर में ऐसा लाभ उठानेका प्रयत्न भी कर रहे हैं जिसका अधिकार अनाक्रामक प्रतिरोध आरम्भ करनेके या गत जनवरीका समझौता किया जानेके समय हमें प्राप्त नहीं था । यह भी गलत है। समझौते के समय स्थिति पूर्णतः स्पष्ट थी । भारतीय १९०७ के एशियाई कानूनको रद कराने के लिए लड़ रहे थे । इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें देश में रहने के अधिकारी प्रत्येक एशियाईकी पूरी शिनाख्तपर एतराज था । हमने जिस बातपर एतराज किया था, वह थी १९०७ के कानूनमें निहित भावना और उसके कुछ आपत्तिजनक खण्ड | हमने दरअसल तरीकोंपर एतराज किया था। उदाहरणके लिए अँगुलियोंके निशानोंके प्रश्नपर -- जिसके लिए मुझे वस्तुतः शारीरिक चोटें सहनी पड़ीं- मैंने संघर्ष के दौरान कभी यह नहीं कहा कि अँगुलियोंके निशान देना स्वतः आपत्तिजनक है। संघर्ष वस्तुतः इसलिए छेड़ा गया था कि भारतीयोंके प्रत्येक आवेदन- निवेदनकी और उनकी प्रत्येक पोषित भावनाकी पूरी अवहेलना की गई थी ।

इसके बाद श्री गांधीने जो समझौता किया गया था उसका उल्लेख किया और कहा :

जहाँतक समझौतेका सम्बन्ध है, यद्यपि यह सच है कि उसमें १९०७ के एशियाई कानूनको रद करने के सम्बन्ध में स्पष्ट शब्दों में कुछ नहीं कहा गया है, फिर भी उसकी लिखित शर्तोंके गर्भित अर्थ से कोई भी यह निष्कर्ष निकाल सकता है। किन्तु जैसा मैंने प्रायः कहा है, और अब फिर कहता हूँ, जनरल स्मट्सने विचारपूर्वक किन्तु मौखिक रूपसे यह वचन दिया था कि यदि ब्रिटिश भारतीय समझौतेका अपना भाग पूरा कर देंगे, अर्थात् स्वेच्छया पंजीयन (वालंटरी रजिस्ट्रेशन) करा लेंगे, तो वे कानूनको रद कर देंगे । समस्त दक्षिण आफ्रिका जानता है, हमने वैसा कर दिया है। मैं यह भी कह दूँ कि जनरल स्मट्सने समझौता होनेके तीन दिन बाद अपना यह वचन रिचमंडमें भाषण[१] देते हुए दोहराया था । और यद्यपि उस भाषणकी ओर उनका ध्यान आकर्षित किया गया है, फिर भी उन्होंने उसका खण्डन कभी नहीं किया और न उसमें कोई किन्तु परन्तु ही जोड़ी है । यदि यह कानून रद कर दिया गया होता तो निश्चय ही किसी तरहका आन्दोलन न होता और न शिक्षित भारतीयोंके दर्जेका प्रश्न हो उठता, क्योंकि जैसा ट्रान्सवालके सर्वोच्च न्यायालयके हालके फैसलेसे सिद्ध हो गया है, शिक्षित भारतीय ट्रान्सवालके प्रवासी-कानूनके अन्तर्गत निषिद्ध प्रवासी नहीं हैं। उनका प्रवेशका अधिकार केवल १९०७ के एशियाई कानूनके द्वारा प्रभावित हुआ है और छीना गया है। इसलिए १९०७ के एशियाई कानूनको रद करनेसे शिक्षित एशियाइयोंको फिर अधिकार प्राप्त हो जाता ।

भेंटकर्ता : आपका मतलब तो दरअसल नये आनेवाले लोगोंसे है ?

श्री गांधी : हाँ; और यह याद रहे कि ये शिक्षित भारतीय लड़ाईसे पहले या उसके बाद शान्ति-रक्षा अध्यादेश (पीस प्रिज़र्वेशन ऑर्डिनेन्स) से प्रभावित नहीं हुए थे; इसलिए शिक्षित एशियाइयोंका प्रश्न किसी भी अर्थ में नया प्रश्न नहीं है। इसका उल्लेख अब प्रमुख रूपसे और पृथक् रूपसे उस विवाद के कारण किया गया है जो कानुनको रद करने के सम्बन्ध में और उसको रद करने के लिए किये गये जनरल स्मट्सके प्रस्तावके सम्बन्ध में तथा ऐसी कुछ

  1. देखिए खण्ड ८, परिशिष्ट ८ ।